राकेश रोहित के कविकर्म पर अनुराधा सिंह
राकेश रोहित |
"जब नष्ट
हो रहा हो सब कुछ
और दिन आखिरी हो सृष्टि का
मेरी प्रिय, तुम मुझे प्यार करती रहना!
...क्योंकि यह प्यार ही है
जिसका कविता हर भाषा में अनुवाद
उम्मीद की तरह करती है।"
(अनुनाद, 2015)
एक कवि जो लगातार कविता की सम्प्रेष्णीयता और सार्थकता पर एकांत में बैठा लिख रहा है और विश्वास कर रहा है उसके चरित्र की अनश्वरता पर, वह कवि राकेश रोहित हैं. राकेश रोहित की कविता लाउड नहीं है, और यह जानते ही उनकी कविता के दूसरे आयाम अनायास स्पष्ट होने लगते हैं. ये बड़े फलक की कविताएँ हैं जो प्रकृति के माध्यम से जीवन का लगभग हर पक्ष छू लेती हैं. इस घोर हड़बड़ी और उथल पुथल के समय में ये कविताएँ वह अंतराल प्रस्तुत करती हैं जहाँ खड़े होकर हम उनके लिखे हुए पर मनन कर सकते हैं. कवि के ह्रदय का जीवट और धैर्य उनकी कविताओं में भी परिलक्षित है.
उनकी विषय वस्तु प्रायः प्रेम, दुःख, जीवन और कविता है, जिसे वे क्षिति जल पावक गगन समीर से साधते हैं. उनकी कविता स्थूल से सूक्ष्म की तरफ बहती है. प्रकृति सायास बिम्बों के रूप में उपस्थित नहीं होती बल्कि यह तो चट्टान के नीचे का सतत नए आकार धरता अथाह पाताल है. "इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है/ आत्मा रोज छूती है मेरे भय को/ मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।/ मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ/ मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ/ संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र/ उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।" ऐसे विराट दृश्य गढ़ती है उनकी कविता .
लगता है कि जैसे एक दिन ये सब चुक जायेंगे, ये दृश्य, ये शब्द, ये बिम्ब और इन सबसे बनने वाली उनकी कविताएँ भी लेकिन ऐसा नहीं होता. राकेश की कविताओं में प्रकृति जीवन के सारे तत्व: अपनी हरियाली और तरलता में डुबो कर पुनः प्रस्तुत करने के लिए ही अपने भीतर समेटती है. हर कविता में उन्हें सांगोपांग परिवर्तित कर देती है, : "इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ/ मैं उस वृक्ष में छिपे/ थके, आश्रय लेते / हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।" वृक्ष का अकेलापन एक मुखर कविता के रूप में ढल जाता है और एक अनासक्ति प्रवाहित होती है अनायास पाठक के ह्रदय में.
वे कविता को केन्द्र में रखकर बहुत कविता कहते हैं क्योंकि उन्हें उसकी अगोचर और सर्वव्याप्त सत्ता पर विश्वास है. शायद अलौकिक सत्ता से भी कहीं आगे पाते हैं इसे वे : “मैं समझता हूँ/ सृष्टि की तमाम अँधेरी घाटियों में/ केवल सूनी सभ्यताओं की लकीरें हैं/ कि जहाँ नहीं जाती कविता/ वहाँ कोई नहीं जाता.” एक कवि के लिए कविता शब्दों की बाज़ीगरी न होकर एक सप्राण अस्तित्व हो, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है. केवल कविता को ही नहीं अपनी कविता में लाये हुए हर बिम्ब को वे इतनी ही संवेदनशीलता से निबाहते हैं .
उनके लिए नदी एक स्त्री है घुटनों तक अपना परिचय साथ लाती हुई. “नदियाँ तो अकसर/ हमसे कुछ फ़ासले पर बहती हैं/ और हमारे सपनों में किसी झील-सी आती हैं ।पर मैं कब चाहता हूँ नदी/ अपने इतने पास/ जितने पास समुद्र/ मेरे सामने टँगे फ्रेम में घहराता है.” नदी का अस्तित्व उन्हें जीवन में पिता के होने की सी आश्वस्ति देता है- “कितना भयानक होगा/ उस समुद्र का याद आना/ जब पिता पास नहीं होंगे/ किसी नदी की तरह."
राकेश की भाषा व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करती है मुझे. यह न केवल बहुत परिमार्जित भाषा है बल्कि कविताकर्म के अनुरूप गति तरलता और कोमलता से भरपूर है. और उनकी कविता के वैचारिक और यथार्थवादी फसाड के अनुरूप भी है. उनका कवि निरंतर है. उन्होंने उसे ऐसे साध लिया है जैसे चलना, खाना और जीना साध लिया जाता है. वे कहते हैं “मैंने अपने जीवन की किरचों को बंद ग्लास के भीतर रख दिया है. यह देखने वालों को सुंदर लगता है और चुभता सिर्फ मुझे है." उनकी कविता में दुःख है एकांत है लेकिन वह पाठकों को चुभता नहीं है, दर्शन के सांचे में ढल कर कविता बन जाता है. हर कवि दुःख पर सबसे सहज हो लिखता है लेकिन राकेश ने पहले दुःख को भोथरा किया तब उस पर कविताएँ लिखीं क्योंकि अनगढ़ दुःख कविता नहीं एकालाप सिरजता है। उनका मनुष्य और कविता दोनों इस बिखराव से दूर हो पक चुके हैं.
“दुख वही पुराना था/ उसे नयी भाषा में कैसे कहता/ पुरानी भाषा में ही/ निहारता रहा अपना हारा मन/ जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे.”
ये कविताएँ जीवन के ठोस धरातल पर खड़े होकर सोचे गए सच की कविताएँ हैं. ‘मंगल ग्रह पर एक कविता’ और ‘विषाद की कुछ कविताएँ’ श्रंखला में कविता की सहजता और माधुरी ओढ़ कर यदा कदा विज्ञान भी आता है. जैसे. “ मेरा मन/ इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल/ इसका कोई भार नहीं है/ न ही कोई आयतन/ फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता”.
वे अपने एकांत में गहमा गहमी से दूर कविता करते रहते हैं लेकिन दुनिया के क्रीड़ा कौतुक देखना नहीं भूलते . अपनी कविता "ग़ज़ब कि अब भी, इसी समय में' में उन्हें खेद है कि इन्सान को दूसरे इन्सान की उपस्थिति या अस्तित्व का आभास तक नहीं. रोज़ मन में दर्शन के ऐसे सवाल उठते हैं कि नींद में देह जीवन से अलग होकर कहाँ जाती है आखिर. वे कहते हैं “ग़ज़ब कि इस समय में मुग्धता/ नींद का पर्याय है।" समय इतना नृशंस हो चुका है कि कवि प्रेम के व्यक्त न होने की आशंका भर से व्यथित हो जाता है. वे कहते हैं कि: “ग़ज़ब कि ऐसे समय में, अब भी,/ तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है।"
जिन्हें यह लगे कि राकेश ऐसे कोमल कवि हैं जो मात्र चाक्षुष प्राकृतिक बिम्बों के साथ अद्भुत प्रयोग कर सकते हैं उन्हें ये कविताएँ भी पढ़ लेनी चाहिए. कवि का एक नया आयाम खुलेगा उन पर. उनकी कविता ‘मेरे अन्दर एक गुस्सा है’ का अंश..... कई बार बहुत कोमल बिम्बों के माध्यम से ऐसा अशमनीय क्रोध व्यवस्था, ज़माने और व्यक्ति के लिए कविता के रूप में उमड़ पड़ता है.
“एक जंग जैसे है दुनिया, एक दिन जीता, एक दिन हारा
कुछ मन में छुपाए बैठा हूँ, कुछ सब को बताए बैठा हूँ ।"
‘हाय ! हमें ईश्वर होना था’ बहुत क्षति के भाव की कविता है . वे मानते है कि धरती के सारे शब्दों की सुन्दरता है इस एक ‘ईश्वर’ शब्द में, यह सबसे छोटी प्रार्थना है. अभिमंत्रित आहूतियां, पितरों के सुवास और जीवन की गरमाई से बना है ईश्वर का अस्तित्व. इसलिए प्रत्येक विशिष्ट इंसान के लिए आवश्यक था कम से कम एक बार ईश्वर हो पाना .
“सोचो तो जरा
सभ्यता की सारी स्मृतियों में
नहीं है
उनका ज़िक्र
हाय ! जिन्हें ईश्वर होना था ।"
‘रेखा के इधर उधर’ में मनुष्य के द्वारा अपने ही लिए बनायीं गयी वर्जनाओं और सीमाओं के प्रति खेद प्रकट किया है . केवल एक ‘रेखा’ शब्द के माध्यम से हम इतनी बड़ी बात मानव जीवन की अन्यतम त्रासदी को अप्रतिम रूप से उद्घाटित कर लेते हैं।
“मैंने नहीं चाही थी
टुकड़ों में बँटी धरती
यानी इस ख़ूबसूरत दुनिया में ऐसे कोने
जहाँ हम न हों”
(नवनीत पत्रिका)
उनकी कविता बाज़ार के अतिभौतिकतावाद की परतें भी उधेड़ती है. बाज़ार में वह हर वस्तु और व्यक्ति बिक जाता है जिसका दाम लगा हुआ है लेकिन बाज़ार असम्प्रक्त है और निर्दयी भी. उन लोगों को पूछता भी नहीं जिनका सांसारिक सफलता के पैमाने पर कोई मूल्य न हो. यह कविता एक डिफरेंट मूड शेड की कविता है जो अनुभवों के जरिये ज़िन्दगी को बहुत कुछ सिखा जाती है.
“अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी।"
राकेश की कविताएँ मुझे जीवन से जोड़े रखती हैं. कविताएँ वैचारिक हैं और व्यवस्था का विद्रूप भी प्रस्तुत करती हैं लेकिन कहीं भी वे जीवन से नहीं कटती हैं. जैसे प्रेम अपने कोमलतम रूप में उपस्थित है भले ही वह है, एक पीड़ा, टीस और विरह के आभास के साथ.
"वह जो तुम्हारे पास की हवा भी छू देने से/ कांपती थी तुम्हारी देह/ वह जो बादलों को समेट रखा था तुमने / हथेलियों में / कि एक स्पर्श से सिहरता था मेरा अस्तित्व.....और जब कहने को कुछ नहीं रह गया है/ मैं लौट आया हूँ .”
राकेश रोहित की कविताएँ हैं संवेदना की, सृष्टि की कविताएँ, जूनून भी है इनमें. यह कविता है एक निडर जीवन पर्व की जिसे कवि जी लेना चाहता है विश्रांति से पहले, लक्ष्य पर पहुँचने से पहले, उत्साह चुकने से पहले. नैसर्गिक अंडरटोन के साथ दार्शनिकता भी सतत बहती है राकेश की कविताओं में. वे अपने काव्यकर्म में उस कड़कती बिछलती दामिनी की तरह नहीं हैं जो आँखें चौंधियाते और गर्जना करते हुए प्रकट होती है और अचानक लुप्त हो जाती है. वे चन्द्रमा के निरंतर व शीतल प्रकाश के साथ बने रहेंगे लगातार अभूतपूर्व कविताएँ रचते हुए, और अपनी सुन्दर वैचारिक कविताओं से हिंदी कविता के फलक को और अधिक समृद्ध करते हुए. और इसी प्रकार पूरी होती रहेगी उनकी यह अभिलाषा- -
“चाहता हूँ कविता ऐसे रहे मेरे मन में
जैसे तुम्हारे मन में रहता है प्रेम!”
(अनुनाद से साभार)
***
No comments:
Post a Comment