Monday 28 December 2015

अँधेरी खिड़कियों के अंदर का अँधेरा - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा / पहला उपन्यास  

अनिरुद्ध उमट 

अनिरुद्ध उमट उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपने कथा शिल्प को लेकर एक खास पहचान बनायी है पर उनके पहले उपन्यास अँधेरी खिड़कियाँ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उनके रचनाकर्म की खासियत उसका शिल्प नहीं वरन वह अनछुआ कथा-क्षेत्र है जो उनकी रचनात्मकता की पहचान भी है और उसकी ताकत भी। विवाह की दैविक अवधारणा को धवस्त कर स्त्री पुरूष को उनकी स्वतंत्र इयत्ता में देखने के अर्थों में यह उपन्यास बोल्डनहीं है क्योंकि यह विवाह को एक सामाजिक संविदा की तरह स्वीकार करने के उपरांत, सपना और यथार्थ की द्वंद्वात्मकता की पड़ताल करता है।

अँधेरी खिड़कियाँ में लेखक ने गोरी मेम का एक रूपक रचा है जो प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति है। यह एक ऐसा सपना है जो बुढिया और उसके पति दोनों को अपनी जकड़न में लिए है। एक तरफ बुढिया का पति उसकी तरफ पीठ कर सोते हुए गोरी मेम की तस्वीर और उसके साथ स्वीमिंग पूल में नहाने का सपना देखते मर जाता है तो दूसरी तरफ बुढिया अपने बूढ़े कंठ में बिसरा दी गयी चहक से याद करती है कि उसकी माँ उसे गोरी मेम कहा करती थी। और फिर अपने पति के मरने के बाद वही बुढिया सोचती है कि उसके पति दरअसल गोरी मेम को भी नहीं चाहते थे, वे जानते ही नहीं थे कि उनका चाहना क्या है? बुढिया अंत तक यकीन करना चाहती है कि मरने से एक दिन पहले उसके पति उससे छुपकर उसी की तस्वीर देख रहे थे क्योंकि उन्हें हर काम छुप-छुप कर करने की आदत थी। इच्छाओं के भटकाव के बीच यह एक भोली आशा और प्यार को पाने की ललक ही है कि पति के पीठ कर सोने के बाद वह बुढिया भी एक करवट सोती रही ताकि कभी वे अपना चेहरा उसकी ओर करें तो उन्हें उसकी पीठ न मिले। कंडीशनिंगकी इस प्रक्रिया से बुढिया तभी मुक्त होती है जब उसका पुराना प्रेमी उसकी तलाश करता आता है जिसे वह अब भी गोरी मेम लगती है और इस तरह एक स्त्री के रूप में वह फिर रिड्यूसही होती है जबकि उस प्रेमी की पत्नी यह पूछते-पूछते मरती है कि क्या सचमुच कोई गोरी मेम की तरह लगती है?

इस तरह समाज की अँधेरी खिड़कियों का जो अँधेरा है वह भयानक और अराजक है जहां एक बुढिया की अदम्य वासना और अतृप्त कामना के जरिए उन स्थितयों की पहचान की गई है जो इनकी कारक हैं और लेखक के मैंका भटकाव इसी सन्दर्भ में है। बुढिया अपनी देह में इस तरह घिरी है कि अपने अस्तित्व की पहचान खो बैठी है और अपने भटकाव में इस तरह उलझी है कि वह लेखक से जानना चाहती है कि आधी रात के बाद उसके घर से जो रोने की आवाज आती है वह उसी की है या किसी और की? बुढिया के लिए यह अनस्तित्व से अस्तित्व की यात्रा है, और वह अपनी देह से तभी मुक्त होती है जब वह जान पाती है कि वह गोरी मेम नहीं है। विवाह रूपी संस्था में पवित्रता और अराजकता के बीच के अवकाश में प्रेम और वासना के द्वंद्व और उससे जूझ रहे स्त्री-पुरूष की तड़प और खासकर स्त्री की अपनी पहचान की बेचैनी को यह उपन्यास बहुत निर्मम तरीके से सामने रखता है।

उपन्यास की बुढिया का चरित्र स्मरणीय है और इन अर्थों में सम्पूर्ण कि अन्य  सारे पात्र उसी के चरित्र से अपनी ऊर्जा ग्रहण करते हैं। कहानी कहीं-न-कहीं वहऔर वेमें उलझ जाती है। कथ्य की जरूरत से परे जाकर भी जटिलता के प्रति रूझान कई बार कथ्य के विस्तार को बाधित और उसकी संभावना को क्षरित करता है। कुछ शब्दों के प्रति लेखक का मोह स्पष्ट झलकता है। जैसे पूरे उपन्यास में रोना हे मुक्ति है के अर्थों में गला फाड़नेका प्रयोग सौ से भी अधिक बार हुआ है और यह पढ़ते वक्त बहत खटकता है। कुल मिलाकर अँधेरी खिड़कियों के अंदर के अँधेरे की दास्तान को जानने के लिए इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए।
 

पुस्तक परिचय: 
उपन्यास/अनिरुद्ध उमट.  कवि प्रकाशन, लखोटियों का चौक  बीकानेर - 334 005 प्रथम संस्करण: 1998. मूल्य: 90 रूपये.

Sunday 27 December 2015

संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा

विमलेश त्रिपाठी 

एक देश और मरे हुए लोगयुवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह पाँच खण्डों में विभाजित है- इस तरह मैं’, ‘बिना नाम की नदियाँ’, ‘दुःख-सुख का संगीत’, ‘कविता नहींऔर एक देश और मरे हुए लोग’. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.

इस तरह मैंमें कविता की अभिव्यक्ति की उलझनें हैं तो बिना नाम की नदियाँमें कवि के उन आत्मीय संबंधों का संसार है जिससे वह और उसका व्यक्तित्व रचा गया है. दुःख- सुख का संगीतमें स्मृति और उम्मीद की कविताएँ हैं. कविता नहींकवि की आकांक्षाओं की कविता है तो पाँचवां खंड जिसमें संग्रह की शीर्षक कविता भी है कवि द्वारा यथार्थ को समझने की कोशिश है.

विमलेश त्रिपाठी संवेदना के कवि हैं. उनकी संवेदना ओढ़ी हुई नहीं है वरन् वह उनमें संस्कार की तरह विकसित हुई है. गांव और लोक की ललक उनकी कविताओं का मूल स्वर है. इसलिए उनकी कविताओं में जीवन में लगातार छूट रही चीजों के लिए एक बेचैनी स्पष्ट दिखती है और यथार्थ और स्मृति के बीच एक निरंतर आवाजाही संभव होती है.

कवि के अंदर अपने अस्तित्व की बेचैनी और अपने गांव से/ अपनी जड़ों से दूर रहकर शहर में प्रवासी हो जाने का दर्द बार-बार उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है. यह एक बूढा हांफता गांवहै जिसकी याद कवि के मन में ऐसी बसी है कि वह कोलकाता में रहकर भी कोलकाता  का नहीं बन सका. यह जड़ों से कटने की पीड़ा है. यह उस गांव के नष्ट होते जाने का दर्द है जहां कुंए में मिट्टी भरती जा रही है.

कवि की प्रखर संवेदना उसकी कविता को अप्रतिम बनाती है. इसी संवेदना की ताकत से कवि बिना चिड़िया के पैरों में रस्सी बांधे और बिना नोह्पालिश से उसके पंख रंगे, उसे अपना बना लेता है. संवेदना कवि का घर है और जल ही जल चतुर्दिकमें उसके आश्रय का द्वीप भी.  
    
कवि को यह भय है कि जिस तरह दुनिया पक्षियों के माफिक नहीं रही उसी तरह एक दिन उसके रहने लायक भी नहीं रहेगी. पर यह कवि का विश्वास है कि वह कहता है-      
कोई लाख कोशिश कर ले
मैं कहीं जाऊंगा नहीं
रहूँगा मैं इसी पृथ्वी पर
बदले हुए रूप में.

विमलेश त्रिपाठी की कविताओं और उनकी कवि- समझ की यह ताकत है कि वे न केवल मनुष्य के अस्तित्व पर आसन्न खतरों की परख करते हैं वरन् उसके लिए एक निरंतर लड़ाई भी भाषा के स्तर पर लड़ते हैं. और उसके लिए वे खुशी-खुशी पूरे होश-ओ-हवास में मूर्खता का वरण करने को भी तैयार हैं. यहाँ मूर्खता अचानक सहजता का पर्याय बन जाती है. यह कवि का अपने पर विश्वास है. इसलिए वे कहते हैं-   
   
शब्द और कितने
फलसफे कितने और
इन दो के बीच फंसे
सदियों के आदमी को
निकालो कोई.
कलम बंद करो
मंच से उतरो
चलो इस देश की अंधेरी गलियों में
सुनो उस आदमी की बात
उसको भी बोलने का मौका दो कोई.

यह कविता में विचार और वाद से पहले  मनुष्य की स्थापना है. और इसलिए कवि कह पाता है, “जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से/ दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद जरूरत.

बहनेंकविता एक महाकाव्य की तरह है और इसमें संवेदना का जो पारावार है उसे एक आलेख की सीमा में बांधना कठिन है. पूरी कविता में दुःख का और समाज में स्त्री जाति के प्रति हो रहे अन्याय का मद्धिम स्वर निरंतर गूंजता है और बहनों की कोई भी हँसी उसे ढंक नहीं पाती. यह कविता अपने आप में एक संपूर्ण वक्तव्य है. इसे पढ़ना दुःख के गीलेपन को महसूसना है जिसे हवा आँखों से सुखा देती है पर दिल के अंदर वह हमेशा रिसता रहता है. इसकी एक-एक पंक्ति समाज की आधी आबादी के साथ हमारे समय की नृशंसता का करुण दस्तावेज है. देखें-

इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही उन्हें
अपने भाग्य के साथ.

स्त्री के इसी दुःख की सततता होस्टल की लड़कियांकविता में दिखती है जब कवि कहता है-
वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना.

यथार्थ और स्मृतियों के बीच जिस आवाजाही की बात मैंने पहले की है वह तीसरे खंड की कविताओं में साफ है. फिर चाहे वह सपनेकविता हो या बहुत जमाने पहले की बारिशया फिर ओझा बाबा को याद करते हुए’. ‘कविता नहींखंड की कविताएँ कवि के आकांक्षाओं की कविता है जहाँ वह अपनी उम्मीद की जड़ें तलाशता है. इसलिए कवि कहता है-

कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम बेकार कवि.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सब कुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला पेड़ कोई.

कविता संग्रह का समर्पण कवि के शब्दों में देश के उन करोड़ों लोगों के लिए है जिनके दिलों में अब भी सपने साँस ले रहे है और संग्रह के शुरुआती पन्ने पर कवि ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियों को याद किया है-

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.
                              (गजानन माधव मुक्तिबोध)

संग्रह के पांचवें खंड का नाम है एक देश और मरे हुए लोगजिसमें इसी नाम की एक कविता भी है. चूँकि संग्रह का शीर्षक भी यही है इसलिए मैं मान लेता हूँ कि यह कवि की सबसे प्रिय  कविता है और इससे उसका सबसे अधिक वैचारिक जुड़ाव है.

एक देश और मरे हुए लोगजिसमें कवि का आग्रह है कि हकीकत को कथा की तरह और कथा को हकीकत की तरह सुना जाए, ‘भन्तेको संबोधित है. इस कविता में एक ऐसे राज्य का रूपक है जिसमें मंत्री, उसके कुनबे और जनता सब मरी हुई है पर राजा जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुँचाना चाहता है रोशनियाँ! मैंने इसको कई बार समझने की कोशिश की कि मुक्तिबोध की जिन पंक्तियों को कवि ने संग्रह में उद्धृत किया है उसमें देश मर जाता है और लोग बचे रहते हैं पर विमलेश जी की कविता में देश बचा है और लोग मरे हुए! अब क्या है यह? यथार्थ का अंतर्विरोध या कविता का विकास? इन मरे हुए लोगों के बीच कवि, लेखक कलाकार आदि कुछ ही लोग जीवित हैं. लोकधर्मी कवि की इस हठात आत्ममुग्धता का कारण क्या है? यह कौन सा यथार्थ है और कौन सा रूपक? जहां राजा जीवित है और तंत्र मरा हुआ! क्या है यह? बुराई का अमूर्तन? और आश्चर्य कि इस अमूर्तन को रचने वाली एक मशीन है जो बाहर से  आयात की गयी है जो जीवितों को लगातार मुर्दों में तब्दील  करती है. यानी यहाँ अमानवीकरण  एक प्रक्रिया नहीं है वरन् बाहर से आयातित है.

यहाँ कवि जो पूरी जनता के मरे होने का रूपक बांधता है क्या यह कवि की हताशा है? क्या यह वही कवि है जो इसी संग्रह में अपनी अंकुर के लिए कवितामें कहता है,

मेरे बच्चे मुझ पर नहीं
अपनी माँ पर नहीं
किसी ईश्वर पर भी नहीं
भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सहकर भी रहते हैं जिंदा.

तो ये करोड़ों लोग जो विमलेश त्रिपाठी की कविता में हर शर्त पर जिंदा रहते हैं अचानक मुर्दों में कैसे तब्दील हो गये? क्या अपने लोगों पर कवि का भरोसा डिग गया है? या यह एक दुस्वप्न  है, एक विभ्रम? इस विभ्रम की स्थिति में इस लोकधर्मी कवि, जो लोक के प्रति अपनी संवेदना से सिक्त है, की उम्मीद सिर्फ कवियों से हैं! और विश्वास कीजिये वैसे कवियों से  जो कवच-कुंडल लेकर महानता के साथ जनमते हैं! पर  विमलेश त्रिपाठी के ही शब्दों में क्या यही कवि अभी जोड़-तोड़ से पुरस्कार पाने में नहीं जुटे हुए थे. यह है विभ्रम की मुश्किलें!

कवि ने पूरी कविता को एक दुस्वप्न भरे रूपक की तरह रचने की कोशिश की है और इस कोशिश में उसका उस संवेदना से साथ छूट गया है जो कवि की ताकत है. संवेदना से इसी विलगाव के कारण गालियाँकविता में कवि गाली के पक्ष में तर्क देने लगता है उसे मन्त्र की तरह पवित्र ठहराने लगता है. इस  क्रम में वह गालियों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने से चूक जाता है. वह भूल जाता है कि गालियाँ दी पुरूष को जाती हैं पर होती स्त्रियों के विरुद्ध  हैं कि स्त्रियों के विरूद्ध नृशंसता की यह वही सदियों पुरानी श्रृंखला है विमलेश जी की कविता जिनके खिलाफ है.

एक देश और मरे हुए लोगमें कवि की आख़िरी कोशिश उस मशीन की खोज है जो जिंदा लोगों को मुर्दा में तब्दील कर देती है. पर कवि यह भूल जाता है कि राजा इन मशीनों से पहले से थे और कविता भी, जो तब भी मनुष्य के अमानवीयकरण की प्रक्रिया से निरंतर लड़ रही थी. पर विभ्रम की मुश्किलों के बाहर विमलेश जी की कविताओं में संवेदनाओं के जो द्वीप हैं वहाँ जीवन का पर्यावरण सुरक्षित है और अपनी आदिम ऊर्जा से भरा साँस लेता है. 


पुस्तक परिचय: 
कविता संग्रह  कवि/ विमलेश त्रिपाठी.  प्रकाशक: बोधि प्रकाशनएफ -77, सेक्टर 9, रोड नं 11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरियाबाईस गोदाम, जयपुर- 302006.   प्रकाशन वर्ष: 2013, प्रथम संस्करण. 

Saturday 26 December 2015

कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा 


नील कमल 

ऐसे भी शुरू हो सकती है
पानी की कथा
कि एक लड़की थी
हल्की, नाजुक सी
और एक लड़का था
हवाओं- सा, लहराता,
दोनों डूबे जब आकण्ठ
प्रेम में, तब बना पानी.”        (पानी)
युवा कवि नील कमल अपनी पानीशीर्षक कविता की शुरुआत ऐसे करते हैं और आकण्ठ डूबने का मतलब तब समझ में आता है जब समझ में आता है कि कैसे पृथ्वी के सबसे आदिम क्षणों में दो तत्वों के मेल से एक यौगिक बनने की प्रक्रिया शुरू हुई होगी. कैसे हवा में घुला-मिला आक्सीजन हवा से हल्के हाइड्रोजन से मिल कर पानी की तरलता में बदल गया होगा. कुछ ऐसा ही होता है नील कमल के यहाँ जब भाव और  जीवन की लय के समन्वय से कविता  बनती है और तब महसूस होता है वे ठीक ही कहते हैं कि पानी इस सृष्टि पर पहली कविता है.

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय हैकवि नील कमल का दूसरा कविता संग्रह है. इससे पहले उनका संग्रह हाथ सुंदर लगते हैंआया था. इस संग्रह में उनकी साठ कविताएँ संकलित हैं. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है नील कमल की कविता गहरी निराशा के समय में प्रेम और जीवन के लिए उम्मीद की कविता है. उनकी बेचैनी है कि दुःख लिखने पर नम नहीं होता/ कठिन करेज कोई पहले जैसाऔर इसलिए वे कहते हैं-
ओ मेरी शापित कविताओं
तुम्हारी मुक्ति के लिए, लो
बुदबुदा रहा हूँ वह मंत्र
जिसे अपने अंतिम हथियार
की तरह बचा रखा था मैंने.”           (ओ मेरी शापित कविताओं)
उनकी उम्मीद का यह अप्रतिहत स्वर है जब वे लिखते हैं-
पत्थर के जिन टुकड़ों ने
तराशा सबसे पहले, एक दूसरे को
वहीं से पैदा हुई सृष्टि की सबसे पवित्र आग.

सबसे ज्यादा पकीं जो ईंटें
भट्ठियों में देर तक
उन्हीं की नींव पर उठीं
दुनिया की सबसे खूबसूरत इमारतें.”            (सबसे खूबसूरत कविताएँ)
और आश्चर्य नहीं उनकी कविता सबसे कठिन जगहों पर संभव होती है जैसे माचिस के बाहर सोई बारूद की पट्टियों में. वे लिखते हैं-
आप तो जानते ही हैं कि बारूद की जुड़वां पट्टियाँ
माचिस की डिबिया के दाहिने-बाँए सोई हुई गहरी नींद.
ध्यान से देखिए इस  माचिस के डिबिया को
एक बारूद जगाता है दूसरे बारूद को कितने प्यार से
इस प्यार वाली रगड़ में है कविता.”              (माचिस)

नील कमल की कविताओं का चाक्षुष बिम्ब- संयोजन बहुत प्रभावित करता है क्योंकि एक समय कविताओं में इसकी बहुलता के बावजूद हाल-फिलहाल की कविताओं में यह लगभग विरल है. संग्रह की शीर्षक कविता में वे इसका बहुत सतर्क और सार्थक प्रयोग करते हैं जब वे लिखते हैं-
सरक रहे हैं
पौरुषपूर्ण तनों के कंधों से
पीतवर्णी उत्तरीय        

ढुलक रही है
अलसाई टहनियों के माथे से
हरी ओढनी
..............
यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
एक बीतता हुआ सम्वत 
अब जल उठेगा, धरती के कैलेण्डर पर.” (यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है)
यही विजुअल डिटेल्स उनकी सुबहकविता में भी दिखता है. सुबह होने का अर्थ/ सचमुच बदल जाता है/ जब एक बच्चा कंगारू का/ नभ प्राची की/ थैलीनुमा गोद से/ झांकता है/ उसकी एक ही छलांग में/ चमक जाता है पृथ्वी का/  सुन्दर चेहरा.यह कवि के गहरे प्रेक्षण का ही परिणाम है कि वे डिटेल्स को इतनी बारीकी से पकड़ते हैं. उनकी खासियत है कि वे यह प्रेक्षण बाहर से नहीं करते हैं बल्कि इस पारिस्थितिकी का हिस्सा बन कर एक इनसाइडरकी तरह करते हैं. इसी बोध से वे लिखते हैं-
धूल मेरे पाँव चूमती है
धन्य होते हैं पाँव मेरे धूल को चूम कर.
धूल को चुम्बक सा खींचता है
वह पसीना, चमकता हुआ मस्तिष्क पर
जो थकान से भींगी बांहों पर ढुलकता है
धूल से नहा उठता है जब कोई आदमी
एक आभा सी दमकती है
धूल में नहा कर पूरे आदमी बनते हैं हम.”      (धूल)
यह कवि की जनपक्षधरता है जो बिना किसी शोर के उसके मूल्य- बोध  और जीवन- दर्शन से जुड़ जाती है. इसलिए वे लिख पाते हैं-
इस सफर में
हे कविता के विलुप्त नागरिक,
तुम्हारी ही ओर से बोलता हूँ
तुम्हारे ही राग को देता हूँ कंठ
तुम्हारे ही दुःख की आग में दहकता हूँ
उल्लसित होता हूँ तुम्हारी ही जय में
तुम्हारी ही पराजय में बिलखता हूँ.”       (इस सफर में)

ककूनइस संग्रह की लंबी और महत्वपूर्ण कविता है. इस कविता में अंतर्निहित संवेदना मन को गहरे झकझोरती है. कैसे रेशम के अजन्मे कीड़े अपने ककून में ही मार दिये जाते हैं कि कुछ मनुष्यों की जिंदगी रेशम- रेशम हो सके, कविता इसका करुण दस्तावेज है. कैसे सभ्यता का उपयोगिता-आधारित विकास एक वर्ग, एक समूह के शोषण पर टिका हुआ है इसकी मार्मिक पड़ताल यह कविता करती है. संवेदना के निरंतर क्षरण के विरुद्घ यह कविता चेतना की एक आवाज की तरह है.

नील कमल कवि के अलावा कविता के एक समर्थ आलोचक भी हैं. इसलिए उनकी कविताओं में गहरे आत्म- निरीक्षण का स्वर भी दिखता है. उनकी चिंता है कि राजधानी के कवियों के लिए असंभव कुछ भी नहीं है. वे चाँद के चेहरे से पसीना पोछेंगे और जेठ की दुपहरी में कजरी गायेंगे. कवि इसलिए सजग रहने का आग्रह करता हुआ कहता है-
मेरे गुनाहों का हिसाब लेना
कभी दस्तखत न करना एक
बेईमान कवि की बातों पर.”       (दस्तखत न करना)

कवि को अपनी परम्परा का गहरा बोध है और उसके विकास की जरूरी समझ. उनकी कविताओं में कई कवियों के नाम आते हैं और वह सप्रयोजन है. त्रिलोचन जी अपनी एक प्रसिद्ध कविता में लिखते हैं, “चम्पा काले अक्षर नहीं चीन्हती.नील कमल त्रिलोचन जी की उस चम्पा से संबोधित हो कहते हैं-
कवि तिरलोचन की चम्पा
से हम सब रहते डरे- डरे
जाने कब वो दिन आए जब
कलकत्ते पर बजर गिरे’.
..........................
रोटी रोजे हो मजबूरी
तो कलकत्ता बहुत जरूरी
बजर गिरेतो बोलो चम्पा
मजबूरी पर बजर गिरे.”           (मजबूरी पर बजर गिरे)
केवल बारह पंक्तियों की यह कविता न केवल एक सुन्दर और प्रभावी कविता है बल्कि इसका एक सुंदर उदाहरण भी है कि कैसे एक वरिष्ठ कवि की कविता हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है और कैसे उन स्मृतियों के उपयोग से एक सजग कवि अपनी परंपरा का विकास करता है. यह कविता बार- बार पढ़े जाने लायक है और कविता में स्मृतियों के प्रयोग और विकास के लिए यह टेक्स्ट- बुक उदाहरण की तरह भी है.

नील कमल की कविताओं की खासियत है उनकी आत्मीयता! यह आत्मीयता एक गहरा जुड़ाव पैदा करती है और यही कारण है कि उनकी कविताओं की गूंज पढ़े जाने के बाद भी मन के अंदर देर तक बनी रहती है. कवि की इस आत्मीयता के पीछे उसका साहस है और शब्दों पर उसका अडिग विश्वास जो उसे उसके जमीनी- बोध से हासिल है. वे अपनी एक कविता में खुद ही लिखते हैं-
मैं काशी के घाटों पर
वृन्दावन की उदासी हूँ,
आँखों में ऑंखें डाले, कविता में
शब्दों का साहस हूँ, और
अन्ततः यह , मेरे प्रिय, कि
कलकत्ता की रगों में दौड़ता
बनारस हूँ.”                     (इस सफर में)
कवि के अनुसार यह उसका आत्म वक्तव्य है और सच है उनकी कविता के बारे में इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता है.



पुस्तक परिचय:  

कविता संग्रह.  कवि/ नील कमल.  प्रकाशक: ऋत्विज प्रकाशन  244, बाँसद्रोणी प्लेस, कोलकाता- 700 070 प्रकाशन वर्ष: 2014, प्रथम संस्करण.  आवरण: कुँवर रवीन्द्र.