tag:blogger.com,1999:blog-87333145669212043082024-03-13T10:32:24.122+05:30विमर्श समकालीन साहित्य और उस पर विमर्श का मंच राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-44219840840985563992018-11-21T16:49:00.000+05:302018-11-21T19:27:02.260+05:30हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित
कथाचर्चा
(पूर्वकथन: "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलेख शिनाख्त
पुस्तिका एक के रूप में पहली बार जून 1992 में प्रकाशित हुआ था. कहानी के 'महाविशेषांक' की संकल्पना के दौर में प्रकाशित यह आलेख मूल रूप से वर्ष 1991 में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
हिंदी कहानियों पर केंद्रित है. संभव है इस आलेख के कुछ संदर्भ समय के साथ पुराने राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-37655321250971408372016-01-10T11:57:00.001+05:302016-01-10T12:09:37.406+05:30मनुष्य की नियति का समय - राकेश रोहित
आलेख
संदर्भ: भुवनेश्वर की कहानी 'भेड़िये'
('भेड़िये' पर यह टिप्पणी डा.
शुकदेव सिंह की 'हंस', मई 1991 में प्रकाशित टिप्पणी "नयी कहानी की पहली कृति 'भेड़िये' ” से आरंभ बहस के क्रम में 'बीच बहस में' 'हंस' सितंबर,
1991 में "मनुष्य की नियति का समय" शीर्षक से प्रकाशित
हुई थी और चर्चित रही थी. 'हंस' के
नवंबर, 1991 अंक में उस बहस की समापन टिप्पणी "भेड़िये
और भेड़िये" में डा. शुकदेव सिंह ने
इसराकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-60591160060702998632015-12-28T18:02:00.000+05:302015-12-28T18:03:46.801+05:30अँधेरी खिड़कियों के अंदर का अँधेरा - राकेश रोहित
पुस्तक समीक्षा / पहला उपन्यास
अनिरुद्ध उमट
अनिरुद्ध उमट उन रचनाकारों में से हैं
जिन्होंने अपने कथा शिल्प को लेकर एक खास पहचान बनायी है पर उनके पहले उपन्यास ‘अँधेरी खिड़कियाँ’ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उनके रचनाकर्म की खासियत उसका शिल्प नहीं वरन
वह अनछुआ कथा-क्षेत्र है जो उनकी रचनात्मकता की पहचान भी है और उसकी ताकत भी।
विवाह की दैविक अवधारणा को धवस्त कर स्त्री पुरूष को राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-59258688682152572412015-12-27T10:00:00.000+05:302015-12-28T18:04:11.434+05:30संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें - राकेश रोहित
पुस्तक समीक्षा
विमलेश त्रिपाठी
‘एक देश और मरे हुए लोग’
युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह
पाँच खण्डों में विभाजित है- ‘इस तरह मैं’, ‘बिना नाम की नदियाँ’, ‘दुःख-सुख का संगीत’, ‘कविता नहीं’ और ‘एक देश और मरे
हुए लोग’. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच
स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
‘इस तरह मैं’ में कविता की अभिव्यक्ति की&राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-68770957240009378362015-12-26T10:31:00.000+05:302015-12-26T11:42:17.566+05:30कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस - राकेश रोहित
पुस्तक
समीक्षा
नील कमल
“ऐसे भी शुरू हो सकती है
पानी की कथा
कि एक
लड़की थी
हल्की, नाजुक सी
और एक
लड़का था
हवाओं-
सा, लहराता,
दोनों
डूबे जब आकण्ठ
प्रेम
में, तब बना पानी.”
(पानी)
युवा कवि नील कमल
अपनी ‘पानी’ शीर्षक कविता की शुरुआत ऐसे करते हैं और आकण्ठ डूबने का मतलब तब समझ में
आता है जब समझ में आता है कि कैसे पृथ्वी के सबसे आदिम राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-22084768314140402772015-12-24T18:35:00.000+05:302019-06-15T20:49:12.501+05:30क्या 'आरोहण' हिंदी कहानी का नया प्रस्थान- बिंदु है? - राकेश रोहित
आलेख
(हिंदी के महत्वपूर्ण कहानीकार श्री संजीव जी की कहानी 'आरोहण' पहली बार ‘हंस’, अगस्त,
1996 में प्रकाशित हुई थी. यहाँ प्रस्तुत यह आलेख 'हंस' में 'आरोहण' कहानी के प्रकाशन के उपरांत 'हंस' के दिसंबर 1996 अंक में प्रकाशित हुआ था. यद्यपि इस
आलेख में एक- दो जगह कुछेक परिवर्तन किये गए हैं इसके साथ आये संदर्भो को कृपया
प्रकाशन वर्ष के साथ ही देखें.)
संजीव
हिंदी कहानी परराकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8733314566921204308.post-61175138476695764512015-12-23T18:01:00.002+05:302015-12-23T18:15:49.866+05:30वे तितली नहीं मांग रहीं... - राकेश रोहित
पुस्तक समीक्षा
कृष्णा सोबती
एक
रचना कहीं-न-कहीं अस्तित्व की तलाश होती है क्योंकि केवल व्यतीत के पुनर्जीवन में
रचना की संपूर्णता की समाई नहीं होती पर यह स्थिति और महत्वपूर्ण हो जाती है जब एक
रचना 'जो है' की तलाश से आगे बढ़ कर
'नहीं होने' का होना संभव करती है। यह
अस्तित्व के आविष्कार की वह प्रक्रिया है जो इस नष्ट होती दुनिया में उन घरौंदों
की रचना करती है जिसमें सदियों से राकेश रोहितhttp://www.blogger.com/profile/02722554981514384443noreply@blogger.com1