पुस्तक समीक्षा
कृष्णा सोबती |
एक
रचना कहीं-न-कहीं अस्तित्व की तलाश होती है क्योंकि केवल व्यतीत के पुनर्जीवन में
रचना की संपूर्णता की समाई नहीं होती पर यह स्थिति और महत्वपूर्ण हो जाती है जब एक
रचना 'जो है' की तलाश से आगे बढ़ कर
'नहीं होने' का होना संभव करती है। यह
अस्तित्व के आविष्कार की वह प्रक्रिया है जो इस नष्ट होती दुनिया में उन घरौंदों
की रचना करती है जिसमें सदियों से संतप्त दिल अनंत जिजीविषा से आज भी धड़कते हैं।
इस पुराने दिल की ताजी धडकनों की जो उत्तेजना 'मित्रो मरजानी'
में प्रकट हुई थी वह एक पवित्र गरमाहट की तरह 'ऐ लड़की' में मौजूद है।
'ऐ लड़की'
के साथ कृष्णा सोबती जी का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा है तो इसके मूल
में यह है कि महाविशेषांक के दौर में 'ऐ लड़की' कहानी एक साथ पाठकों से लेकर नये- पुराने लेखकों की टिप्पणियों के केंद्र
में रही है। इनमें से कुछ को याद करना संदर्भ के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकता है।
संजीव इसे 'केवल जीभ व विकलांगता के अबसेशन' में सीमित करने को इच्छुक थे तो सृंजय ने एक मजेदार टिप्पणी की-
"रौंदी गयी फसलों के बीच ऐ लड़की का बिजूका।" रमेश उपाध्याय ने 'इलाहाबादी लेखक त्रय' द्वारा 'ऐ
लड़की' को 'बेजोड़, अद्भुत और कालजयी' बताने को "प्रायोजित चर्चा
के प्रवर्तन का अप्रतिम उदाहरण" ठहराते हुए लिखा- " उन्होंने सिर्फ एक
कहानी (महाविशेषांक में) पढ़ी और उसी को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दिया।"
"हिंदी कहानी का जनतंत्र" (पहल-42) में स्वयंप्रकाश
ने 'ऐ लड़की' को अंक (महाविशेषांक) की
सबसे कमजोर कहानी ठहराते हुए सवाल उठाया कि क्या लेखिका में इतना साहस है कि वह
पाठकों को बताए कि यह कहानी है या लघु उपन्यास? पर
महाविशेषांक के संपादक उस समय यह बताने में व्यस्त रहे कि किस तरह एक पाठक 'ऐ लड़की' को पढ़कर इतना डर गया कि वह गायत्री मंत्र
का जाप करने लगा!
कहानी
और उपन्यास के रूप में प्रकाशन के इतने वर्ष बाद आज इसे कुछ निरपेक्ष ढंग से समझने
की जरूरत फिर इसलिए है कि यह कहानी उस छद्म से मुक्त है जिस छद्म से रची गयी उस
काल की कई 'कालजयी' कहानियां आज पुरानी
पड़ चुकी हैं। पर जो खुद पुराना है वह पुराना कैसे पड़ेगा! इसमें कुछ नया नहीं है
अगर एक मर रही बूढ़ी माँ मरते समय बीते वक्त की जुगाली करती हुई अविवाहित मंझली
बेटी की चिंता में घुली जा रही है या नर्स सूसन जो इस जीवन में समान रूप से शरीक
होते हुए भी जैसे कथा से निरपेक्ष है। 'ऐ लड़की' में अम्मू कहती है, "नींद में जैसे कोई बारिश
की आवाज सुनता है न ऐसे ही कोई बीता वक्त सुन रही हूँ।" पर अगर कहानी को केवल
इसी बिन्दु पर रिड्यूस करके देखने से अलग आप तैयार हों तो इस कहानी को अस्तित्व के
अंत:संचरण के रूप में समझा जाना चाहिए जहाँ माँ और लड़की के अस्तित्व का परस्पर एक
दूसरे में घुलना है।
'ऐ लड़की'
में माँ अपनी जीवन- स्मृति लड़की में खोलती है और इस तरह जीने की
इच्छा का आवाहन करती है- "तुम्हें बार-बार बुलाती हूँ तो इसलिए कि तुमसे अपने
लिए ताकत खींचती हूँ।" और इस तरह उस अनुभव को छू पाती है- "मैं तुमलोगों
की माँ जरूर हूँ पर तुमसे अलग हूँ। मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं। मैं मैं
हूँ।" पर इस अनुभव को पाने के पहले वे एक परकाया प्रवेश जैसी चीज से गुजरती
हैं, वह है एक दूसरे को पाना। लड़की से बात करती हुई माँ
उसके खीझने पर कहती है- "मैं तुम्हें खिझा थोड़े रही हूँ। सखि सहेलियां भी
ऐसी बातें कर लेती हैं।" यही माँ द्वारा लड़की को एक स्वतंत्र अस्तित्व के
रूप में पाने की विनम्र प्रक्रिया है। परिवार और अकेलेपन के दो ध्रुवों के बीच
स्त्री की सनातन नियति से विद्रोह के रूप में ही इस कहानी के नये अर्थ बनते हैं।
अम्मू जो एक भरा- पूरा पारिवारिक जीवन जी चुकी है जीवन छोड़ने सा पहले उन ऐषणाओं
को याद करती है जो उसकी अपनी मुक्ति के लिए आवश्यक था पर परिवार के पुरानिर्मित
सांचे में जिसकी जगह नहीं बन सकी। शिमला की यात्रा के बहाने कृष्णा सोबती ने
बार-बार अम्मू के बनने से रह जाते स्व को पकड़ने की कोशिश की है। जब अम्मू शिमला
सफर के दौरान पति से कहती है, "मेरा फैसला है मुझे
चक्कर नहीं आना चाहिए तो आएगा कैसे!" तो महसूसती है, "जाने क्या था, सहज भाव से कही यह बात हम दोनों के
बीच बहुत देर तक पड़ी रही।" यह अम्मू के बहाने एक स्त्री की कंडीशनिंग की
प्रक्रिया की पहचान है जिसकी विवश अभिव्यक्ति जीवन के निर्मोह क्षणों में होती है-
"इस परिवार को मैंने घड़ी मुताबिक चलाया पर अपना निज का कोई काम न संवारा।
चाहती थी पहाड़ियों की चोटियों पर चढ़ूं। शिखर पर पहुंचूं। पर यह बात घर की दिनचर्या
में कहीं न जुड़ती थी।" इसी बेचैनी से वह कहती है- "मैं तितली नहीं मांग
रही, अपना हक मांग रही हूँ।"
लड़की
जो इस कथा में सायास शामिल है अपने अस्तित्व के प्रति पूर्णतया सजग है। और ऐसा
पहली बार है कि लड़की जो जिंदगी अपने लिए चुनती है उसके स्वीकार से बचती नहीं है
और मुझे कहने दीजिए, सारी कथा इसी अस्तित्व की आश्वस्ति की परख करती
है। यह सारी कहानी परिवार में पुरुष की स्थापित भूमिका से विद्रोह का वाचन है।
अम्मू, लड़की से लेकर सूसन तक सभी अपनी भूमिका में कुछ नया
जोड़ने को व्यग्र हैं और यह अनायास नहीं है कि पुरुष- व्यवहार के प्रतीक पिता और
बेटा इस कथा में अनुपस्थित पात्र हैं। बात वहाँ साफ होती है जब अम्मू लड़की से
कहती है- "सुनो, बेटा- बेटियां, नाती-
नातिन, पुत्र- पौत्र मेरा सब परिवार सजा हुआ है, फिर भी अकेली हूँ। और तुम! तुम उस प्राचीन गाथा से बाहर हो, जहाँ पति होता है, बच्चे होते हैं, परिवार होता है। न भी हो दुनियादारी वाली चौखट, तो
भी तुम अपने आप में तो आप हो। लड़की अपने आप में आप होना परम है, श्रेष्ठ है।" इसलिए अम्मू जब लड़की के कमरे में जाकर सिगरेट पीती है
तो यह लड़की की जीवनशैली के प्रति उसका स्वीकार है जिसको लेकर वह अब तक सशंकित बनी
हुई दिखती रही है। यहाँ पारंपरिक मान्यताओं से अस्तित्व की टकराहट की स्पष्ट गूंज
है। उन मान्यताओं से जिसके अधीन आखिरी बीमारी में नाना पास खड़ी बेटियों को आवाज
नहीं देते हैं। माँ भी इस मान्यता की ओर लौटती है। वह मृत्यु के अंतिम क्षण कहती
है- "लड़की अपने भाई को आवाज दो। उसे जल्दी बुला लो। खूंटे पर से मेरा घोड़ा
खोल देगा। उसे समुद्र पार दौड़ा ले जाऊंगी मैं!" और लड़की माँ का हाथ छूकर
उसे डुबकी ले नहा लेने को कहती है। वह अब आश्वस्त है माँ के अस्तित्व के प्रति कि
माँ ने उसे 'डिसकवर' कर लिया है।
"दिलो-दानिश"
कृष्णा सोबती जी का प्रसिद्ध उपन्यास है। बीसवीं सदी के वक्त को समेटती यह कथा
अपने चुस्त संवादों के बल पर क्लासिक का स्वाद देती है। कथा वाचन के लिहाज से
महत्वपूर्ण प्रयोग यह है कि प्रत्येक दृश्य का वाचक वह कथा- पात्र है, घटना अनुभूति के स्तर पर जिसके सबसे करीब घट रही होती है।
"दिलो-दानिश"
के फ्लैप पर इसे प्रेम और परिवार के दो ध्रुवों के बीच जिंदगी की बरकतों को नवाजती
छोटी- बड़ी हस्तियों के कायदे- करीने के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। पर
मुझे यह सही नहीं लगता है क्योंकि इस परिवार की कथा का दूसरा ध्रुव प्रेम पर नहीं
टिकता है। कृपानारायण वकील साहब थोड़ी देर के लिए यह जरूर महसूस लें कि फर्क चाहने
में नहीं चाहत में है पर महक को लेकर यह भी उन्हीं की सोच है और ज्यादा साफ है-
"महक के यहाँ न वायदों के टंटे- बखेड़े हैं न झूठी- सच्ची जफाओं और वफाओं के।
वक्त के लिए वक्त की खुशनुमाई ही तो। महक जैसी औरत भला हम पर क्या हावी होगी। चल
रही है क्योंकि चल निकली है।" फराखदिल वकील साहब के लिए तो यह ढंग की चाहत भी
नहीं है। भला इसे प्रेम में किस तरह बांधें?
क्या
ऐसा नहीं है कि यह उपन्यास व्यक्तित्व विभाजन की नियति पर टिका है? यह
नियति उस संयुक्त परिवार के विघटन की डिमांड उत्पन्न करती है जो सामंतवादी ढांचे
के आधार की तरह फल- फूल रहा है। यह व्यक्तित्व विभाजन वकील साहब का भी है पर इससे
पहले और ज्यादा जरूरी तौर पर कुटुंब का है, बउवाजी और छुन्ना
बीबी का है। वकील साहब के लिए यह ओढ़ी हुई स्थिति है। वे जो कुटुंब और महक के बीच
बंटे हुए दिखते हैं यही उनका सुख है जिसका चयन उनका पुरुष- गौरव है। बउवाजी इसके
बारे में कहती हैं- "हमसे पूछो तो मर्द को गुमराह करनेवाले फकत हुस्न और
जवानी नहीं उसकी कमाई है जो उसे खुदमुख्तारी देती है।" वकील साहब के इस
पुरुष- गौरव की अभिव्यक्ति अपने भदेस रूप में वहाँ होती है जब वह महक बानो की जवाब
तलबी पर खीझकर खौलते हैं, "दिल में आया इसकी जांघों को
रौंद डालें।" पर महक अपने व्यक्तित्व को विभाजित होने से बचाये हुए है। यह
उसकी अपने अस्तित्व के प्रति सचेतनता है। वह वकील साहब के साथ भी है और वकील साहब
के बिना भी... पूर्ण! यही उसका नायिका तत्व है जो कुटुंब, बउवाजी
से लेकर छुन्ना बीबी के समंजन के विरुद्ध चैलेंजिंग है।
छुन्ना
बीबी भुवन से आर्य समाज में शादी कर उस यथास्थिति को भंग करती है जिसके बारे में
बउवाजी का नियतिवादी दृष्टिकोण है- "कुछ बदलने वाला नहीं। जो हो रहा है उसे
नजरअंदाज करो। सुनो बहू! शादी के पहले सालों में हम जब- जब पीहर जाते माँ से लगकर
खूब रोते। पर अम्मां ने हमें कभी न पूछा कि बिटिया बात क्या है। हर बार थपथपाकर
यही कहे- आओ चलो मुंह धो लो।"
प्रसंगवश
बउवाजी और उनकी अम्मा की तुलना 'ऐ लड़की' के अम्मू
और लड़की से कीजिए। इस संवाद विरलता की स्थिति से आगे 'ऐ
लड़की' की लड़की सघन संवाद करती अम्मू के समक्ष अपने निर्णय
और स्थिति को लेकर कितनी दृढ़ और आश्वस्त है! चूंकि 'ऐ लड़की'
पहले की रचना है तो संभवतः कृष्णा सोबती जी ने 'दिलो दानिश' लिखकर यह बताना जरूरी समझा कि 'ऐ लड़की' की लड़की किस स्थिति से चलकर यहाँ तक
पहुंची है!
कुटुंब
का व्यक्तित्व वहाँ विभाजित होता है जब वह अपने स्व को महक में बदलने की ललक से
भरी नजर आती है। वहाँ वकील साहब पर अपने अधिकार की चिंता अपने अस्तित्व को लेकर
सचेतनता से अधिक महक से प्रतियोगिता की है। और जब वह वकील साहब के साथ महक के यहाँ
कंगन मांगने जाती है तो यह उसका रिड्यूस होना है। क्योंकि जो महक के पास उसका अपना
है उसे कौन छीन सकता है! कुटुंब वहीँ बड़ी दिखाई देती है जहाँ वह वकील साहब की निरंकुश
स्वतंत्रता (मुझे शराब पिला और यह कहकर पिला कि यह शराब है। अब छिपकर न पिला इसलिए
कि अब खुलकर पीना मुमकिन है।) के गौरव से लड़ती हुई सवाल करती है- "जहाँ तक
आप लोगों का सवाल है उन्हें तो बदलने की जरूरत ही नहीं।" पर ऐसे स्थल थोड़े
हैं जहाँ कुटुंब अपनी स्त्री होने की इयत्ता को संरक्षित रखती नजर आती है। जबकि
महक इसे लेकर पूरे तौर पर सतर्क है। अपने अस्तित्व पर संकट के क्षण, जब वह
महसूसती है- "रेत में पांव धंसे जाते हैं। तपती धूप और रेगिस्तान। दीख रही है
यही दो झाड़ियां और वह भी वकील साहब की हुई।" - बेटी के विवाह रूकने का बड़ा
खतरा उठाकर जिस तरह वकील साहब से जिरह करने को उद्धत होती है वह उसका अपनी सत्ता
के प्रति सचेतन होना ही है। इसमें संदेह नहीं कि यह सचेतनता महक को वह गौरव देती
है जो उसे हिंदी कथा पात्रों में अविस्मरणीय बनाती है। यह महक का अपनी तय भूमिका से
बाहर निकलना और उसके स्व की पुनर्रचना है। महक अपने कद की हो जाती है जब वह खुद को
जान लेती है- "आज से पहले तो हम औरत नहीं थे। ओढ़नी थे, अंगिया थे, सलवार थे।" वे जेवर जिनके लिए नसीम
बानो ने खून कर दिया था और जिसे वकील साहब ने अपने पास रख रखा था, माँ के उस जेवर की मांग महक के पहचान की मांग है जिसके लिए उसकी माँ उम्र
भर लड़ती रही और वह जेवर पहनते ही उसका खानदानी स्वरूप उतर आया ऐसे जैसे दुनिया को
पछाड़कर खड़ी हो गयी हो। और जैसा कि कृष्णा सोबती लिखती हैं- वे तितली नहीं मांग
रहीं....
very nice rakeshbhai
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