कथाचर्चा
बावली को शायद अस्तित्व के अंतःसंचरण के रूप
में देखना कठिन हो पर आप इसे उसकी उपस्थिति के अंतःसंचरण के तौर पर ले सकते हैं.
यहां तोशी माँ के छुपकर किये जा रहे प्यार से रची जाती अजनबी दुनिया में अपने पिता
के अस्तित्व (उपस्थिति) को कांप कर हवा में गुम हो जाने से बचाती है. यह तोशी
द्वारा अपने पिता की उपस्थिति बचने का जतन जो कि उनकी अठन्नी चाँद में अशर्फी सी चमकती है, तोशी का 'एलियनेशन' से मुक्त होना है. वह माँ जो अपनी आतुरता
और उल्लास में तोशी में खतरे की टोह लेती है, उसके प्रति निस्संग भाव से तोशी सोचती है, "घर की देहरी के बाहर कितने खतरे दिखाई देते थे उनके
बीच चलती हुई बीजी कितनी छोटी हो जाती थी." यह उसका अकेलापन है जो उसकी माँ
ने रचा है और जिसके विरूद्ध वह आइने के सामने खड़े होकर खुद में पिता को तलाशती है
और अजनबी अंकल के दिये दस के नोट से चिपकी गंध को चिन्दियों में
फाड़कर गुल्लक में रख देती है. यह वही अकेली(बावली) लड़की है जो कुछ खोने से डरती है, जो पाना सब कुछ चाहती है. वह खुले चाँद में खड़ी है, और उसकी हथेली में अठन्नी अशर्फी की तरह चमकती है.
मनोज रूपड़ा की जबह पढ़ते हुए मुझे लगा यहां न केवल अस्तित्व
अंतःसंचरित होता है वरन् वह एक दूसरे में विकास भी करता है. कहानी के आरंभ में मनु है जो अपने अंदर अपनी निकहत
रचता है और माँ अपने अंदर अपना मंजूर हसन बचाती है. और तब तक दोनों की दुनिया
नितांत अपनी है. कुछ हद तक सूनेपन से भरी, बहुत हद तक अजनबी. वहीँ समय की सांप्रदायिकता
के रेशे हैं और ऊपर सहजता की चिकनाहट. यहीं कहीं वह दबाव है जो उस बीते समय को
हमारे बीत रहे समय से जोड़ता है और हमें एक साथ सारे समयों में अकेला करता है.
मंजूर हसन की हत्या और निकहत की आत्महत्या, और कि उसकी कारक परिस्थितयों पर थीसिस
लिखती मनु की माँ, यह सब जो एक जड़ता भरे समय की
स्वीकारात्मकता है मनु उसे तोड़ता है. वह माँ के अंदर निकहत और माँ, मनु के अंदर मंजूर हसन का विकास करती है, यह न केवल दो पीढ़ियों का मार्मिक जुड़ाव
है बल्कि उनके दो स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी जो जबह का कलमा
पढ़े जा रहे इस समय में बचा है एक राहत की तरह.
नयी कहानी के शुरुआती दिनों में उषा प्रियंवदा की एक कहानी वापसी (कहानी, 1960) आयी थी जिसे नामवर सिंह ने खास तौर पर रेखांकित किया था. इसमें
रिटायर्ड होकर घर लौटे गजाधर बाबू अपने ही घर- परिवार में अपने को अनफिट पाकर फिर
अनजानी जगह में अपरिचितों के बीच लौटते हैं. यह कहानी पढते हुए मुझे लगता रहा कि
यह परिवारवाद के मध्यवर्गीय समंजन को तोड़ती हुई सामंती सुखबोध की स्थापना (तलाश)
शायद अनजाने में ही करती है. वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी की डांगरीवाले पढ़कर लगा कि आज इतने वर्ष बाद जैसे अचानक
यह कहानी उसके समांतर स्वरूप उसके सही अन्दाज में पाती है. और वह इस तरह कि यह
कहानी व्यक्ति के अकेलेपन, पीढ़ियों की प्रतिहिंसा और इन सबके बीच
मध्यवर्गीय समंजन के 'स्पेस' को बारीक ढंग से पकड़ती है. पर जाहिर है
इसे कोई मोड़ बिंदु (turning point) नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उषाजी इस संरचना को काफी पहले पकड़ रही थीं कि उनमें व्यक्ति के अकेलेपन और
व्यक्तित्व को बचाने का यथास्थितिवादी संकट ज्यादा साफ है. वैसे यहाँ एक बात
स्पष्ट होनी चाहिए कि गजाधर बाबू के व्यक्तित्व को बचाने का यह संकट यथास्थितिवादी
क्यों है? जबकि ऐसा है कि गजाधर बाबू जीवन के सौंदर्यबोध और स्वाद की तलाश की छटपटाहट
लेकर कहानी में प्रवेश करते हैं. इसी सौंदर्यबोध से वे अपने पुराने जीवन को खोई निधि सा याद करते हैं जिसमें पटरी पर रेल की पहियों की खटखट उनके लिए मधुर
संगीत की तरह थी. और जब वे अपने परिवार में लौटते हैं तो पाते हैं कि वहां पूंजीवादी उदारता से रचे समंजन में बेस्वाद जिंदगी का यथास्थैतिक स्वीकार है
और परंपरा बोध के नाम पर अशुद्ध स्तुति करती पत्नी है. गजाधर बाबू अपनी चेतना में
इसे नकारते हैं और 'जो है, जैसा है' में शामिल हो जाने से इंकार करते हैं. पर
क्या यह चेतना भारतीय परिवार की सामंती प्रक्रिया से संचालित होती है जिसके तहत
आरंभ में वे थके हारे घर लौटने पर पत्नी के रसोई के द्वार पर निकल आने के आग्रही
हैं और बाद में घी और चीनी के डिब्बों में रमी पत्नी का भारी सा शरीर उन्हें बेडौल
और कुरूप लगता है. और क्या वे इसलिए अपने को मिसफिट पाते हैं कि वे घर के केंद्र
में बने रहने के 'पुरुषोचित' आग्रह से मुक्त नहीं हो पा रहे और इसी
मंशा से अपने लिए एक आर्थिक सत्ता की तलाश में पूंजीवादी विस्तार को स्वीकारते हैं
और मिल में नौकरी करने को स्वीकार कर पूंजीवादी उदारता में व्यक्ति को बचाए रखने
के भ्रम को कायम करते हैं. और शायद यही वह बिंदु हो सकता है जिससे इस कहानी को समझने का सूत्र हासिल हो सकता है.
वह है कि एक परिवार जो पूंजीवादी उदारता के आग्रहों से भरा अपने मूल और प्राचीन
स्वरूप, जो काफी हद तक सामंती था, से मुक्त हो चुका है. उसमें कथा नायक
अपनी ईमानदार चेतना, भले ही वह उसकी सामंती सांस्कारिकता से संचालित होती है, के साथ प्रवेश करता है और अस्वीकार दिये गये सौंदर्यबोध की तलाश में छटपटाता है. पर वह
अपनी चिंता के साथ अकेला है और परिवार के पूंजीवादी ढांचे को नकार कर अंततः फिर
उसी पूंजीवादी विस्तार में शामिल होता है तथा इस तरह यथास्थिति के विरुद्ध
यथास्थिति को स्वीकार करता है. यह उसकी नियति है या नहीं, कहानी इसे नहीं छूती पर वह इस परिणति तक पहुंचती है और इस तरह वह परिवार के
सामंती ढांचे के चरमराने तथा इसके विरुद्ध पूंजीवाद के व्यापक प्रसार की सूचना देती है. यह नेहरु के मिश्रित
अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वप्न से लोगों के मोहभंग का काल था जब केरल में 1957
में देश की पहली साम्यवादी सरकार की स्थापना होती है.
रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी द्वार
पूजा (वर्तमान साहित्य, जुलाई 1991) पिपही बजाने वाले झमेली द्वारा सुखदेव कलक्टर की बेटी
की शादी में पिपही बजाने की इच्छा की कहानी है. यह एक सामान्य इच्छा रह जाती अगर
झमेली सुखदेव के बाप और उनकी बहन की शादी में पिपही बजाने की परंपरा को अपने
अधिकार से न जोड़ते और साथ-साथ इस भावना से न जुड़े रहते, "दुलहिन भी सुन लेगी हमारा बाजा." पर धीरे-धीरे कहानी में यह बात फैलती है, "गांव वालों की कोई खास जरुरत नहीं है." और झमेली क्या अपनी अपमानित
सत्ता से बेखबर पिपही बजाने के सुख में डूबा है? नहीं, जब आप देखते हैं कि विशाल शामियाने के
पीछे गोहाल में उसने अपनी मंडली रची है, अपनी एक दुनिया बनायी है जिसमें उसकी
सत्ता है. वह अब विवाह की घटना से जैसे ऊपर है कि झमेली भी यह बात बिल्कुल भूल गया है कि वह अपनी
पोती की शादी में पिपही बजाने आया है. इस दुनिया में उस चमक भरी दुनिया का
हस्तक्षेप भी है जब सुखदेव बाबू पंडित चुनचुन झा को शास्त्री जी के साथ बैठ जाने
को कहते हैं, "गरीब पुरोहित हैं, बेचारे
को कुछ दान-दक्षिणा भी मिल जायेगी." और तब राधो सिंह पंडी जी को द्वार पूजा
के लिये छोड़कर स्मृतियों के साथ जीवित दूसरी दुनिया में लौटते हैं. जहां एक संदेश
पिपही से निकल कर फ़ैल रहा है, "माय हे, अब न
बचत लंका--- राजमंदिर चढि कागा बोले---."
चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी हिंगवा घाट में पानी रे ( हंस, मई 1987) आजादी के बाद के हमारे प्रांतीय यथार्थ की एक विशिष्ट रचना है. इसमें
जायसवाल जी ने ढह रहे सामंतवाद और पनप रहे नव्यतम राजनीतिक स्टंटों व छद्मों की
गिरफ्त में फंसे भनटा और उसके समाज के दबावों को सामने रखा है. वर्तमान समय में
भनटा जैसे लोगों की भोली आशाएं छली जाती रही हैं और इस छले जाने को भनटा अंत में
स्वीकार भी करता है. पर अगर भनटा में स्थानीय स्तर पर सुरो बाबू से मुक्त होने की
किसी चेतना का विस्तार नहीं हो रहा और भनटा खुद को शोषण की परंपरा में शामिल किये
जाने को अहसान के साथ स्वीकारता है तो लगता है इनके यहां कहानियां अपनी
अतिस्वाभाविकता में विचार को 'ओवरटेक' कर जाती हैं और इस तरह वे यथार्थ का
अतिक्रमण करने की कोशिश में कोई समांतर यथार्थ नहीं रच पाती हैं. इस वर्ष चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी अभागा (हंस, अप्रैल 1991) आयी. अपराध, आपरेशन जोनाकी, देवी सिंह कौन जैसी कहानियों के एक अंतराल के बाद इस
कहानी (अभागा) को एक घटना के रूप में होना चाहिए
क्योंकि यह कहानी परिवर्तन की मध्यवर्गीय इच्छा की शिनाख्त करना चाहती है. पर
इसमें पूर्व पीढ़ी के मध्यकालीन अभियानों में शामिल होने की अभौतिक इच्छा का आनंद
है और इस आनंद में लेखक इतना डूबता है कि वह उस पीढ़ी, जो यथास्थिति को पोषित करती है, को एक मजाकिये चरित्र में बदल देता है और नयी पीढ़ी के जीवन-विचार का संकट
अनछुआ रह जाता है. इन सबके बावजूद चन्द्र किशोर जायसवाल की भाषा पर अद्भुत पकड़
यथार्थ के डीटेल्स को पकड़ने में नहीं चूकती है और कथात्मकता का एक सुन्दर वितान
रचा जाता है.
(पूर्वकथन: "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलेख शिनाख्त
पुस्तिका एक के रूप में पहली बार जून 1992 में प्रकाशित हुआ था. कहानी के 'महाविशेषांक' की संकल्पना के दौर में प्रकाशित यह आलेख मूल रूप से वर्ष 1991 में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
हिंदी कहानियों पर केंद्रित है. संभव है इस आलेख के कुछ संदर्भ समय के साथ पुराने पड़ गये हों पर
इससे आलेख में उठाये गये रचनात्मक चिंताओं की प्रासंगिकता कम नहीं होती है. विज्ञ
मित्रों और पाठकों से अनुरोध है कि वे कृपया आलेख के पठन के वक्त इसके मूल प्रकाशन
का वर्ष ध्यान में रखें और संदर्भों को उसी दृष्टि से देखें.)
अगर राजेंद्र राव अपने नये स्तंभ 'हाल मुरीदों का कहना' की शुरुआत 'एक हाहाकारी दृश्य' पर इस प्रतिक्रिया के साथ कर रहे हों कि, "महिला कथाकारों का उल्लेख और उनके कृतित्व की चर्चा
कुछ इस ढंग से की जाती है कि उन्हें जरा भी ठेस न लगे. नई लेखिकाओं को तो अनुभव भी
नहीं होने दिया जाता कि रचनायात्रा एक संघर्षपूर्ण कंटकाकीर्ण पथ है. उदाहरण के तौर पर सुरभि पाण्डेय और
गीतांजली श्री की चित्र सहित दो-तीन कहानियां छपी होंगी मगर गजब का हल्ला है. इस
तरह की अतिउत्साहवादिता से महिला लेखिकाओं ने साहित्य में भी अपने आपको
रक्षिता, असूर्यस्पर्श्या और आलोचना-प्रत्यालोचना से परे मानना
शुरू कर दिया हो
तो क्या आश्चर्य." तो यह मान लेना चाहिए कि वे इसमें निहित विवाद को भी भली-भांति समझ रहे
होंगे. वैसे यह तो आम है कि महिला लेखन को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं और इसी
बहाने इसे आम लेखन से अलग रखने/करने की कोशिशें भी बची रहती हैं. पर एक ही समय में
यह बात अलग-अलग तौर पर उठाई जा रही हो तो इस दौर में जब मार्क्सवादी गढों से
समाजवाद की समाप्ति के बाद अचानक यथास्थिति के दर्शन को स्थापित करनेवाले
सुविधावादी लेखन का जोर हो तो मैं समझता हूँ महिला लेखन पर
की जा रही चिंताओं से एक संकेत ग्रहण किया जा सकता है. यह अनायास नहीं है कि जिस
समय उपेन्द्र नाथ अश्क 'महिला कथा लेखन की अर्धशती' पर लिख रहे हों उसी समय राजेंद्र यादव, नासिरा शर्मा बनाम मृदुला गर्ग के बहाने 'यथास्थिति में लौटती कद्दावर औरतें', शाल्मली और ठीकरे की मंगनी की प्रतिसमीक्षा में लिखने तथा उषा महाजन ‘ऊबे हुए सुखियों के दुःख’ पर सफाई देने को विवश हों. पर इससे पहले, क्या यह मान लेना भी एक क़िस्म का
सुविधावाद न होगा कि महिला लेखन अपने अधिकांश स्तरों में एक सुविधावादी लेखन है और
जिसे न केवल महिलाएं बल्कि उनसे ज्यादा बड़ी संख्या में पुरुष लेखक कर रहे हैं? और तब ऐसी स्थिति में इस किस्म के सुविधावादी लेखन को महिला लेखन के रूप
में रेखांकित करना अवश्य ही पुरुष उपनिवेशित मानसिकता का स्पष्ट प्रतीक है. पर
शायद समीक्षाएं (आलोचना नहीं) अक्सर प्रचलित प्रतीकों का इस्तेमाल करती हैं. जैसा प्रेमचंद ने 'हंस' नवंबर 1930 में जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल की समीक्षा करते हुए लिखा," लेखक की कवितामयी शैली में यद्यपि इतनी सजीवता और मरदानापन नहीं, पर उसकी कसर सौंदर्य और कोमलता ने पूरी
कर दी है" (कहानीकार-112). इस सम्बन्ध में अपने एक लेख में वीर भारत तलवार ने
लिखा है, " साहित्य में फेमिनिन होने से प्रेमचंद का मतलब भावुकता, दुर्बलता और प्रवाह के साथ बह जाने से
है. मैस्कुलिन साहित्य वह जिसमें दृढता हो, शक्ति हो, चुनौतियों का सामना करने का साहस हो. यह
पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों के बारे में रोमांटिक धारणा तो है ही, इस अर्थ में अंतर्विरोधी भी है कि एक ओर प्रेमचंद स्त्री-पुरुष
की समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर फेमिनिन को मैस्कुलिन की तुलना
में घटिया समझते हैं" (इंद्रप्रस्थ भारती, जुलाई-सितंबर 1991). और यहां एक चिंता जन्म लेनी चाहिए अगर
महिला लेखन इसके विरुद्ध हस्तक्षेप नहीं रच पा रहा हो जैसा कि भारत भारद्वाज लिखते हैं, "एक दो अपवादों को छोड़कर अधिकांश कथा लेखिकाओं की कहानियां इस आरोप को
बलपूर्वक झुठलाती नहीं हैं कि उनकी कहानियों का घेरा दांपत्य संबंधों में आयी दरार, प्रेमी-प्रेमिका का अंतर्द्वंद्व एवं नारी की यातना
एवं यंत्रणा का चित्रण है."
शायद यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हो, मैं कतई नहीं मानता कि नारी लेखन और
पुरुष लेखन जैसी कोई चीज होती है और हो भी तो वह रचना के मूल्यांकन का आधार नहीं
बन सकती. पर बतौर वर्गीकरण, मुझे लगता है आज का महिला लेखन अपने जिस स्वरुप में ज्यादातर है वह एक किस्म की रचनात्मक तलाश तो है पर
अविष्कार नहीं. कह सकते हैं कि तलाश का
निजी दुनिया की जरूरतों से ज्यादा जुड़ाव है कि अविष्कार एक किस्म की रचनात्मक
विलासिता है. पर राजेंद्र यादव की शब्दावली में
कहें तो 'इन्वेंशन' कहीं-न-कहीं आपकी रचनात्मकता
को 'ओरिजनल' बनाता है और साथ ही तलाश की प्रक्रिया के
सिरों को समझने में भी मदद करता है कि जिसकी अनुपस्थिति में आप 'दयनीय जस्टिफिकेशन' से मुक्त नहीं हो पाते हैं. यह अकारण नहीं है कि नारी मुक्ति बनाम
नारी चेतना को लेकर आज कई भ्रम रचे जा रहे हैं कि कई महिला रचनाकार जहां इस बहाने
अपने को 'वुमेन लिब' के आंदोलन से जुड़ा समझने के आत्मसुख से
भरी हैं वहीँ वे अपने अंदर एक अभिजात्य किस्म की सैडिस्ट प्रवृत्ति का भी विकास कर
रही हैं. उषा प्रियम्वदा का एक प्रसिद्ध उपन्यास है शेष यात्रा (1984).
इसमें एक सरल लड़की अनुका की शादी प्रवासी
भारतीय प्रणव से होती है और कुछ अंतराल के बाद उनकी शादी असफल हो जाती है. विदेश
में वह अकेली लड़की अपने मौलिक अस्तित्व का
अविष्कार करती है. वह खुद डॉक्टर बनती है
दीपांकर से विवाह करती है और इस तरह सुख भरे जीवन में लौटती है. यहां तक
तो ठीक है पर अंत में अनु की मुलाकात प्रणव से
हास्पीटल में होती है. वह मृत्यु के रास्ते
पर है. और एक दिन वह अनु से बिना
मिले अपना टेस्ट कैंसिल कर वहां से चला जाता है. प्रणव
को इस तरह निरीह बना और उसे एक अनिवार्य अपराध बोध
से भर उषा जी आखिर क्या कहना चाहती हैं? क्या इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि अनुका
जिस मुक्ति को पाती और जीती है उसे चुनने के निर्णय के स्वीकार से बचती है. मुझे
यहां प्रेमचंद की एक कहानी इस्तीफा (पांच फूल) याद आती है जिसका मध्यवर्गीय नायक अपने
ऑफिस में क्रूर अपमान विवश होकर सहता है
और तनाव में घर लौटता है. उसकी पत्नी स्थिति जान उसे उत्प्रेरित
करती है और साहस के साथ इस्तीफा के निर्णय
में निर्णायक सहभागिता निभाती है. एक सीधी-सादी कहानी में अगर प्रेमचन्द इतनी बड़ी बात कह पाये तो यह वर्ग चेतना की समझ से ही हो सका. दरअसल
नारी चेतना की बात वर्ग चेतना को उत्क्रमित कर की ही
नहीं जा सकती. नारी मुक्ति अगर कोई
वायवी चीज नहीं है तो वह शोषण मुक्त परिवेश में ही आकार ले सकती है. नारी
लेखन की यह जिद कि वह नए सवाल खड़े कर
उनसे जूझेगी सचमुच तमाम रचनात्मकता के लिए विस्मयकारी है. पर इसके
बावजूद ऐसा है कि महिला लेखन में वह तत्व है जिसे आप बतौर लेखन रेखांकित करने से बच नहीं
सकते. और यह बेझिझक कहा जा सकता
है कि जिस लेखन को आप रचनात्मकता की वजह से जानते हैं वह कृष्णा सोबती का है
जिनकी कहानी ऐ लड़की आज चर्चा में है. और 'स्पीड पोस्ट बनाम सपोर्ट पोस्ट' जैसे कई संदेहों व संजीव की टिप्पणी कि वहां 'सिवाय अपनी जीभ व विकलांगता के अबसेशन' के कुछ नहीं है और इसके बावजूद कि सृंजय ने कौवे उड़ाने के लिए एक
ढेला फेंका है "रौंदी
गई फसलों के बीच ऐ लड़की का बिजूका". अब भले
ही पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुल्ला नसरुद्दीन उवाचते रहें- बात
इससे साफ हो सकती है अगर आप जानते हों कि बिजूका, सृंजय की एक लघुकथा का शीर्षक है और सृंजय मचान पर बैठे अपने खेत देख रहे हैं!
प्रेमचंद |
...तो संभव है यह संयोग हो पर मैं इसे
महत्वपूर्ण मानता हूँ कि कृष्णा सोबती की ऐ लड़की की चर्चा निर्मल वर्मा की बावली और मनोज रूपड़ा की जबह (तीनों वर्तमान साहित्य, महाविशेषांक) के सन्दर्भ में बेहतर की जा सकती है. यह
बात रचनात्मकता की सततता (continuum) की ओर इशारा करती है अगर तीन भिन्न रचनाकारों की रचनाओं के अंतःसूत्र एक हों.
तीनो कहानी में ध्यान दें तो ऐसा लगता है यह अस्तित्वों के अंतःसंचरण की कथा है. ऐ लड़की में माँ और लड़की का एक दूसरे में परस्पर घुलना है. वहां माँ अपनी
जीवन-स्मृति लड़की में खोलती है और इस तरह जीने की इच्छा का आवाहन करती है (तुम्हें
बार-बार बुलाती हूँ तो इसलिए कि तुमसे अपने लिए ताकत खींचती हूँ) और उस अनुभव को
छू पाती है, "मैं तुमलोगों की माँ जरुर हूँ पर तुमसे
अलग हूँ. मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं. मैं मैं हूँ." पर इस अनुभव को पाने
के पहले वे एक परकाया प्रवेश जैसी चीज से गुजराती हैं, वह है एक दूसरे को पाना. लड़की से बात
करती हुई माँ उसके खीझने पर कहती है, "मैं तुम्हें चुभा थोड़े रही हूँ.
सखि-सहेलियां भी ऐसी बातें कर लेती हैं." यही माँ द्वारा लड़की को एक स्वतंत्र
अस्तित्व के रूप में पाने की विनम्र प्रक्रिया है. यहां परम्पराओं की दुनिया से
वर्जनाओं की मुक्ति है. उन वर्जनाओं की जो आख़िरी बीमारी में नाना
पुत्र-मोह के अधीन पास खड़ी बेटियों को आवाज नहीं देते हैं. माँ भी इससे बच नहीं
पाती. वह अंत में फिर इसी पारंपरिक वर्जना की ओर लौटती है. वह मृत्यु के अंतिम
क्षण कहती है, "डॉक्टर को नहीं अपने भाई को बुला. खूंटे पर से मेरा घोड़ा खोल देगा
समुद्र पार हो जाऊंगी." और लड़की उसे उस समुद्र में डुबकी ले नहा लेने कहती
है. वह अब आश्वस्त है माँ के अस्तित्व के प्रति कि माँ ने उसे 'डिसकवर ' कर लिया है.
निर्मल वर्मा |
मनोज रूपड़ा |
रमेश उपाध्याय ने इलाहाबादी लेखक त्रय द्वारा ऐ लड़की कहानी को "बेजोड़,अद्भुत और कालजयी" बतानी को "प्रायोजित चर्चा के
प्रवर्तन का अप्रतिम उदहारण" ठहराते हुए लिखा
है, "उन्होंने सिर्फ एक कहानी पढ़ी और उसी को सर्वश्रेष्ठ
घोषित कर दिया"(हिंदी
कहानी का जनतंत्र, पहल-42). इसलिए सचेत रूप से मैंने 'वर्तमान साहित्य महाविशेषांक' की सभी कहानियों की चर्चा करने के कोशिश आगे की है जबकि एक लुप्त होती हुई नस्ल, जुमराती मियां और एक वक्त की रोटी की चिंताओं में सहज जुड़ाव है और ये
कहानियां कई मायनों में श्रेष्ठ हैं, पर इस चर्चा से वर्तमान कहानी के कंटेंट
और फार्म की विविधताओं और सीमाओं को समझने की कोशिश हो सकती है और यह एक भली सी बात होगी.
वैसे वर्ष का आरंभ तो महाविशेषांक की 'चमकार' की ऐसी घोषणाओं के साथ हुआ था जिनसे उम्मीद सी बंधती थी कि इस दौरान कुछ
ऐसी कहानियां आयेंगी जिनकी गूंज इस सदी के अंत तक सुनाई पड़ेंगी. पर यहां ऐसा कुछ न था जो हिंदी कहानी की
रचनात्मक सत्ता स्थापित करने की निर्मल इच्छा से भरा हो और अक्सर
चर्चा के केंद्र में रचना से ज्यादा रचनेतर चीजें हावी रहीं. महाभारत और महाबार के
दौर में विशेषांक के पहले 'महा' विशेषण जोड़ने की मौलिक कल्पना वाले रवीन्द्र कालिया ने छियासठ कहानियों के एकत्रीकरण से यह
सिद्ध कर दिया कि पत्रिका सम्पादित करने के लिए दृष्टि कितनी गैर जरूरी चीज होती
है! और जब कालियाजी को इसका आभास हुआ तो वे अपने उतावलेपन में ऐ लड़की कहानी की गैर रचनात्मक खूबियों का बखान करने में इस
तरह जुट गये मानों उनका संपादक होना कृष्णा सोबती द्वारा वह कहानी लिख पाने के लिए आवश्यक था. ऐसा पहली बार हुआ कि कोई
संपादक छियासठ कहानियों को पढ़े जाने का अवकाश दिए बिना किसी कहानी की चर्चा का
श्रेय लेने की हडबड़ाहट में इस तरह भर गया हो, और 'मैं महान' वाला आत्मगौरव भी ऐसे कि किस तरह एक पाठक
ने लिखा कि वे ऐ लड़की पढकर इतना डर गये कि गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे.
यह नये किस्म का पुनरुत्थानवाद था और वहां सूचनाएं थीं कि कैसे अलका सरावगी ने अपनी पहली कहानी से ही कमाल कर दिया, कि गंभीर सिंह पालनी की मेढक तक पर चर्चाएँ हो रही हैं और सृंजय अपनी अतीत से आगे किन-किन को पढ़ा चुके थे. फिर भला इसमें
बुरा क्या था अगर लगे हाथ 'हंस' के स्तंभकार भारत भारद्वाज ने मौलिक स्थापना दी कि मन्नू जी (मन्नू भंडारी) की न लिख पाने की विवशता भरे पत्र ही एक महत्वपूर्ण रचना है और इस तरह 'न लिखने का कारण' की राजेंद्र जी (राजेंद्र यादव) की चिन्ता में मन्नू जी भी शामिल हो गयीं
सो घलुवे में! और रमेश उपाध्याय ने खुले आम घोषणा कर दी कि अगर कोई प्रकाशक उन्हें संपादन ऑफर करे तो वे किन पच्चीस कहानियों को चुनेंगे. यह
समीक्षा के कुछ नये और सरल प्रतिमानों की रचना थी.
वर्तमान साहित्य के महा विशेषांक में छियासठ रचनाकारों की कहानी पढ़ते हुए
एक बात जो सामने आती है वह यह कि वाचक जो 'नयी कहानी' के विरुद्ध एक 'जनवादी दुनिया' की तलाश में गांव गया था वह अब तक वहां
से लौटा नहीं है (यह अलग बात है कि उसकी चिट्ठियां लगातार आती हैं और उनसे कई गांव
रचे जाते हैं) और आज की हिंदी कहानी अब भी गांव में घूम रही है. इस सिलसिले में यह
जानना आतंक भरा है कि यहां बहुत कम कहानियां अपना शहर उसके पूरे आतंक को साथ लेकर
उपस्थित हुई हैं. गांव से लेकर कस्बे की या फिर 'देश काल रहित' इन कहानियों में, अमानवीकरण के खतरे से लेकर संवेदनशून्यता
का ठंडा स्वीकार, सारा कुछ मौजूद तो है पर इन सबके बावजूद
शहर अपने परिवेश सहित जैसे यहां अनुपस्थित है, और यह तब जब अब भी ज्यादातर कथाकार शहरों
में हैं, छुट्टियों में गांव भले जाते हों! तो क्या इससे संकेत यह लिया जा सकता है
कि साहित्य अब भी जीवन से ज्यादा कल्पना में है कि अपने देखे परिवेश के प्रति
हमारी संवेदना कम सचेत है? शायद एक कहानी है जो इस आरोप से मुक्त
होती है वह है गोविन्द मिश्र की आकरामाला और जिसका साथ नगर जो देखन मैं चला, प्रस्थान, एक नाम मीशा, बालूभीत पवन का खंभा, आपकी हंसी, नुक्कड़ नाटक आदि कहानियां देती हैं.
अथ कथा जय श्री भगवान ( कामतानाथ ) में भगवान के जन्मदिन के बहाने एक आतंक
भरी फैंटेसी उर्फ फैंटेसी का आतंक है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की नदी किनारे शाम एक निर्दोष भावुक अपील से लिखी गयी कहानी
है, एक बूढ़ा जो कभी नहीं मरता और 'परदेशी' जो उम्र के अंतरालों पर उन्हें तलाशता है
और आसमान चिड़ियों से भर जाता है. इस कहानी में एक जगह अब्दुल जी ने लिखा है, "सभी ऋतुएं समय से आयीं और गयीं, गांव की कुछ गायों ने बछड़े जने और कुछ बछियाएं. एक
कुम्हार जो बहुत दिनों से बीमार था मर गया. दो युवक डकैती करते हुए पकड़ लिए गये.
सब्जी तो महंगी हुई थी अन्य चीजें भी महंगी हो गयी." समय को मापने का यह अंदाज मुझे
परेशान करता है और विचलित भी. बहुत दिनों से बीमार, मर गये कुम्हार और डकैती में पकड़ लिये
गये युवक को इस तरह दिनचर्यात्मक घटनात्मकता से जोड़ देना मुझे संवेदना का
यथास्थैतिक हनन लगता है, जो हम झीनी-झीनी बीनी चदरिया के अब्दुल जी से उम्मीद नहीं करते. इन निर्वैयक्तिक स्थितियों के विरुद्ध निर्मल वर्मा की एक चिंता देखिए, " क्या कोई इतिहास में लिखेगा कि सितंबर 1955 की शाम को सड़क पर चलती हुई भीड़ में से एक चेहरा
हँसा था" ( सितंबर की एक शाम, परिंदे ). और अस्तित्व को 'आइडेंटीफाई' करने की इस चिंता तक निर्मल वर्मा अचानक और किसी वैयक्तिक रुझान से अनायास
नहीं पहुंचते हैं, बल्कि इसकी एक निरंतर प्रक्रिया है. पिक्चर पोस्टकार्ड कहानी में इसे देखा जा सकता है. जब परेश
एसप्रेसो रेस्तरां में रात के ठीक दस बजे जूक बॉक्स में रिकॉर्ड बजाता है- थ्री कायन्ज इन द
फाउन्टेंन. इसलिए कि नीलू ने कहा था जबकि इस समय वह ट्रेन में होगी. मैं समझता हूँ यह भावना न केवल मनुष्य की निजी दैहिक
भौतिकता का अतिक्रमण करती है वरन् इससे आगे व्यवस्था की भौतिकता, जो नीलू द्वारा हर शहर से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने के आग्रह से अभिव्यक्त
होती है, के विरुद्ध कुछ बचा लेने की जिद से जुड़ जाती है. और निर्मल वर्मा पर नामवरी पश्चाताप के बाद अगर आप परिंदे से नाक-भौं सिकोड़ने की मुद्रा में न हों तो यह देखना
महत्वपूर्ण है कि पिक्चर पोस्टकार्ड कहानी में अमूर्त रूप से व्यक्त यह भाव परिंदे कहानी में ठोस प्रतीक के रूप
में सामने आता है जब मिस लतिका जूली के तकिये के नीचे नीला लिफाफा दबाकर रख देती
है. अविवाहित मैडम द्वारा अपनी छात्रा को उसके प्रेम-पत्र वापस कर देने की यह
प्रक्रिया विलयन की वह अवस्था है जहां अस्तित्व का पारदर्शी क्रिस्टल आकार ग्रहण
करता है. मैं नहीं समझता कि व्यक्ति और व्यक्ति की अस्ति के सूचकों को नकार कर
सामुदायिकता की बात की जानी चाहिए या की जा सकती है.
तरसेम गुजराल की कहानी दरबदर में युद्ध का समय है. असगर वजाहत की मुश्किल काम में आतंक का आतंक है. विनोद मिश्र की जुमराती मियां सांप्रदायिकता पर लिखी गयी उल्लेखनीय कहानियों में एक है. यह सांप्रदायिकता
को एक आसन्न युद्ध की तरह प्रस्तुत नहीं करती है बल्कि उसकी प्रक्रिया को समझती है
और जुमराती मियां उसका प्रतिषेध फोटू बेचने के बदले लड़के को उधारी में किताब देकर
करते हैं. यह प्रतीक रूप से शिक्षा के प्रसार की सूचना है. कहानी में वह मार्मिक
स्थल है जब जुमराती मियां अपने गांव में बच्चों को असुरक्षित समझ उन्हें नाना-
नानी के गांव भेजते हैं और रात को बच्चे वहां से लौट आते हैं क्योंकि वहां
नाना-नानी का घर बंद था, वे कहीं चले गये थे. और यह जो बचा हुआ है, कि वहां काम करने वाले एक आदमी ने उन्हें मटर की छीमियां खिलाई और ईख चूसने
को दी. कहानी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जुमराती मियां को मसीहानुमा या पीड़ित
व्यक्ति नहीं बनाती है बल्कि जुमराती मियां बिना किसी विद्रोही भाव के अपने सहज
अंदाज में पीर की तस्वीर को आगाह करते हैं कि, "तुम अपनी सोच में तब्दीली कर लो नहीं तो
मेरे बाद मेरे बच्चे तुम्हें इस दीवार से हटाने के बारे में सोचने लगेंगे."
यह कहानी लंबे समय तक याद रखी जानी चाहिए. सबीना के चालीस चोर ( नासिरा शर्मा) भी सांप्रदायिकता के सवाल से जूझती है यह
लोककथायी मिथ का एक फौरी इस्तेमाल करती हुई ऐसे समय को स्वीकारती है जहां उम्मीद
का मासूम लफ्ज केवल नयी नस्ल के लिये है.
सृंजय की कहानी अतीत से आगे में इतिहास-बोध, इतिहास का विरोध है, वह भी जन- परंपरा के नाम पर. इधर सृंजय की एक और कहानी आयी है - मूंछ (हंस, अगस्त, 1991). किसी ने कहा, कामरेड का कोट विचार प्रेरित कहानी है, कि इसमें कथा नहीं है, तो सृंजय ने दो कथा लिखी है जिसे आप बांच सकते हैं. सृंजय कहानी प्रकाशन के पूर्व यह सूचना प्रसारित कर कि इसे अलां और फलां लोग पढ़
चुके हैं एक किस्म का आतंक रचते हैं. पर अतीत से आगे में सृंजय व्यवस्था के जिन उपकरणों के विरुद्ध आम
आदमी को खड़ा करना चाहते हैं वह जनता अतीत से पीछे उर्फ मूंछ में जमींदार बनाम बनिये की लड़ाई (यह आज
के दो व्यावसायिक घरानों की लड़ाई से किस तरह अलग है यह सवाल निर्दोष कथावाचक से
पूछना बेमानी होगा !) में कहां छूट जाती है यह समझ पाना कठिन है. बहरहाल मूंछ के
विरुद्ध मूंछ को स्थापित कर यह कहानी एक नये अर्थ-
आधारित सामंती मानसिकता की सतर्क पुनर्स्थापना करती है ऐसा कहना क्या बिल्कुल गलत
होगा?
दिनेश पालीवाल की बची हुई जिंदगी में काफी बिखराव है. पूरी कहानी में वाचक अपनी पत्नी और बेटी की लाश देखने
के दुःख तक नहीं पहुँच पाता है. कहीं-कहीं उसकी सरसामी हालत की झलक अवश्य मिलती है. द्विजेन्द्र नाथ मिश्र निर्गुण की कालचक्र बदलते सामाजिक मूल्यों और उनके दवाबों की
कथा है. विष्णु प्रभाकर की औरत इस विश्वास को सामने लाती है कि, " नफरत अपने आप में कुछ नहीं है, वह प्रेम का विलोम है." श्रीलाल शुक्ल की वे बच जाएंगे मगर... में राजनीतिक व्यामोह में घिरे लेखराज जी
का अकेलापन है. राम दरश मिश्र की शेष यात्रा में विघटित होते परिवार की दहशत है. मृदुला गर्ग की एक नाम मीशा नारी मुक्ति बनाम नारी चेतना और उसके
दवाबों व अकेलेपन की त्रासदी का रफ केरीकेचर है. शैलेश मटियानी की कुतिया के फूल में शास्त्री जी और श्री अम्बा के विषाद
में जागता जीवन है जिसमें कुतिया के फूल खिलते हैं और एक नये सौंदर्य का बोध रचा
जाता है. राजी सेठ की खासियत रही है कि वे पुरानी बात को भी नयेपन से
उनकी संपूर्णता में उठाती हैं और एक मुकम्मल सोच को आकार देती हैं. सदियों से में भी अग्निपरीक्षा की परंपरा का निर्वहन करती
दांपत्य की धवलता को सिद्ध करने के लिये सूली पर टंगी स्त्री है. और राजी सेठ इस विचार को उसके सही वजूद में रखती हैं कि, "इतना तो मिन्नी जान रही है कि वह मिन्नी नहीं है."
विष्णु नागर की साधु का रास्ता असफल यात्राओं की कथा है, "जहां एक का अर्थ दूसरे को मंजूर नहीं और
अर्थ बतानेवाले को भी अपने अर्थ पर शंका रहती है." इंद्रमणि उपाध्याय की मौत दर मौत में भौतिकता में उलझी संवेदना का मरणराग
बजता है. हृदयेश की मनु तटस्थ व्यंग्य के माध्यम से बदलते समाज
और जड़ चेतना की शिनाख्त करती है. कहानी याद रहती है और कमलेश्वर की गर्मियों के दिन की याद दिलाती है. भीष्म साहनी की मान्यताएं एक ठहरे हुए समाज में वैचारिकता की आम
सहमति की किस्म की परख करती है और इस तरह स्थापित कर पाती है कि किस तरह हमारे निर्णयों की विचारधारा के केंद्र में
मनुष्य की जगह कुछ तय सुविधाएं है. मार्कण्डेय, हलयोग में ग्रामीण सामंतवाद की कुछ दंड
प्रक्रियाएं लेकर उपस्थित हुए हैं. 'ए से एस और जेड से जेब्रा', आजकल संजीव कुछ इस तरह की संयोगात्मकता का भी उपयोग
अपनी अभिव्यक्ति में करने लगे हैं और आप चौंकने के लिए स्वतन्त्र है. वैसे मांद कहानी में संजीव जो कर पाए हैं वह यह कि एक माहौल में पल
रहे एक परिवार पर हावी होते वर्ग विभेद के दवाबों को ग्रामीण अंदाज से पकड़ते हैं.
कि वह केवल मांद है जहां सुरक्षा और सुविधा का दमघोंटू अहसास है और अपनी जमात मांद
से बाहर है. स्वयं प्रकाश, हत्या कहानी के दो प्रसंगों में संवेदनाओं को
उनकी मौलिकता में बचने की फ़िक्र से जुड़े है.
शशांक की कहानी बालूभीत पवन का खंभा एक तनाव की तरह फैलती है और धीरे से उसमें उठती है व्यतीत-मोह की सुगंध. "माया सुनो तो देखो. वह
लड़की तुम्हारे बचपन की माया नहीं लगती?" बीत हुए को फिर से पा लेने की मोह भरी जिद, शायद यही है जो इस बिखराव भरे जीवन का गोंद है. मोहन थपलियाल की कहानी एक वक्त की रोटी बिना किसी बड़बोलेपन के हमारे सामने डिबली के एक वक्त के जीवन की कथा कहती
है. पानी से लेकर रोटी तक के जुगाड़ में डिबली की पहाड़ सी मशक्कत हमारी चौवालीस साला आजादी के खिलाफ सबसे सशक्त व्यंग्य
है. राजेन्द्र दानी की उनका जीवन में उनके दुःख को मिथ में बदल देने की
कोशिश मुझे अजीब लगती है. हां, उनके जीवन से हमारे अंदर उठता भय कुछ समझ
में आता है. निजी सेना (हंस, सितंबर, 1987) के बाद जयनंदन ने लगातार इतनी कहानियां लिखी कि पाठक
कहानी का नाम भले याद न रख पाये जयनंदन का नाम नहीं भूलता. तो ऐसे में यह सूचना
के तौर पर लिया जाना चाहिए कि जयनंदन की कहानी छुट्टा सांड आयी है. मेढक शैक्षणिक स्मृतियों का रोचक स्मरण है, पर कहानी के रूप में इसका प्रभाव कमजोर है ऐसा गंभीर सिंह पालनी जी भी मानेंगे. महेश दर्पण की दरारें में एक घर की दीवारों पर पड़ती दरारों से
जीवन में उठती दरारें हैं.
अमरकांत की श्वान गाथा पढकर श्रीकांत की कुत्ते (सारिका, जुलाई, 1982) कहानी याद आती है. ये कहानियां एक
दूसरे का विकास हैं जिसे दो भिन्न पीढ़ी के लेखक अपने समय की जिम्मेवारी से उठाते
हैं. श्रीकांत की कुत्ते में कुत्ता के खोने से खड़ा हुआ सरकारी
तमाशा है तो अमरकांत की श्वान गाथा में कुत्ता काटने को लेकर
क्रांतियां-प्रतिक्रन्तियां तक हो जाती हैं. कुल मिलाकर यह हमारे समय पर गैर
मुद्दे की बातों का आच्छादित होना है.
उषा प्रियंवदा |
दूधनाथ सिंह की लौटना में वर्जनाओं की दुनिया में मुक्ति का उछाह भरता बच्चा है
जो गोसाईं को अपनी चेतना के अनुभव में लौटाता है. अलका सरावगी की कहानी आपकी हँसी वाचक 'मैं' की संवेदनशीलता को 'ग्लोरीफाई' करती है. कहानी के अंत में जब नत्थू बाबू
के दूर के रिश्तेदार हँसते हुए बताते हैं, "दरअसल आपकी ही तरह का पागल है वह", तो इसमें लेखिका की कोशिश 'मैं' की संवेदना को विशिष्ट करने की हैं. यह
कहानी उस 'पागल' जिसकी सुन्दर बीवी किसी 'यार' के साथ भाग गयी पर आपकी हँसी के विरुद्ध
तो है पर इस बहाने क्या यह एक व्यक्ति के 'डाइल्यूशन' से उत्पन्न विचलन को एक शिथिल संवेदना से
ढंक नहीं देती है? और अगर यह कहानी आलोचकों को पसंद आ रही
है तो केवल इसलिए कि वे इस संवेदना की चमक अपने अंदर महसूसना चाहते हैं. एक
व्यक्ति द्वारा खुद को तुच्छ समझे जाने तथा निर्मम किस्म की आज्ञाकारिता के टूटन
को कहानी किस तरह स्वीकार कर लेती है, इस पर उनकी नजर नहीं है. गिरिराज किशोर की आंद्रे की प्रेमिका पढ़ते हुए मुझे लगा कि वे जो जीवन में साहित्य तलाशेंगे जीवन को कितना ठहरा
हुआ पायेंगे. मंजुल भगत की मलबा सामूहिक जिजीविषा की एक अच्छी कहानी है
जो नारी चेतना को नारी मुक्ति की तरह नहीं उठाती है बल्कि उसे एक वर्ग-अस्तित्व
में बदल देती है और अजवायन सनी रोटियां मीठी होकर गले में घूम-घूमकर फैलने लगती
हैं.
काशीनाथ सिंह की एक लुप्त होती हुई नस्ल एक खास समूह के विलुप्तीकरण की सूचना है जो समूह सामाजिकता को अपनी जीवन
शैली में जोड़कर देखता है. यह कहानी उस बरदेखुआ नस्ल के असंगत होते जाने को हास्य से पकड़ती हुई परिवेश के पर्यावरणीय संकट
की ओर संकेत करती है. इसे एक बेहद संभावनाशील रचना के रूप में लिया जाना चाहिए. गंगा प्रसाद विमल की नुक्कड़
नाटक नुक्कड़ का सच है. कहानी अपनी तन्मयता में आस्था के स्पर्श तक पहुंचना चाहती
है. गोविन्द मिश्र की आकरामाला में
हमारे संबंधों की संरचना में शहर धीरे से दाखिल होता है और धीरे-धीरे अपनी क्षुद्र
उंचाइयां समेत स्थापित हो जाता है. वहां एक निर्जनता है जो अजनबीयत से पनपती है और
त्रिशंकु की तरह बीच वरिमा में झूलने के अहसास से जीवन जल कहीं सूखता जाता है.
रवींद्र वर्मा की तस्वीरों का सच दृश्य माध्यम के सच की तस्वीर है. रमेश उपाध्याय की कहानी फासी-फंतासी फासी तक ठीक है, फंतासी तक आते-आते यह एक उत्तेजित यथार्थ
रचने लगती है. मधुकर सिंह की नेताजी एक राजनीतिक परिदृश्य को सामने रखते हुए
भी अधूरी सी लगती है. एक बात जो सामने आती है वह यह
कि राजनीतिज्ञ इतने भोले हैं कि कवितायेँ लिखते हैं. सतीश जमाली की हड़ताल ट्रकों की हड़ताल के बहाने ठहरे जीवन की
कथा है. नीलकांत की उसका गणेश धैर्य से लिखी हुई अव्यवस्थित कहानी है.
टनटनिया के चरित्र को अराजक मिथ में बदलते हुए लेखक वाचक के वर्ग चरित्र को सुरक्षित रखता है. जवाहर सिंह की विषकन्या में एक असफल जीवन शैली का
खोखलापन है. परेश की सिल्वर एक कूल टीचर में मृत्यु की ठंडी सुरंग से बाहर निकल आयी एक जीवित धरती है जिस तक कहानी
अपने पूरे ठहराव से पहुँचती है. सुरेश सेठ की पिरामिड से सड़क तक तात्कालिकता से उत्प्रेरित स्फुट विचार है जो "अब कोई और सड़क बनानी
होगी" के रहस्यवादी आदर्श तक पहुँचता है. राकेश वत्स की कामधेनु पढ़ते हुए मुझे रमेश उपाध्याय की कामधेनु (चतुर्दिक,1980) याद आयी. रमेश उपाध्याय ने कामधेनु का प्रयोग समाजवाद की स्थापना के लिए किया है तो राकेश वत्स ने साम्यवाद का छद्म उकेरने के लिए, दोनों जगह गाय भोली जनता है जिसका इस्तेमाल सिद्धांतवादी विचारधारा को ज़माने-उखाड़ने में करते रहे
हैं. महेश्वर की नगर जो देखन मैं चला क्रम से लिए गये बेहतर 'स्नैप शाट्स' हैं जो व्यंग्य की तरह यथार्थ के हिस्सों
तक पहुँचते हैं और उसे समूचे यथार्थ में बदल देते हैं. शैलेन्द्र सागर, गुलइची में महिला चरित्र रचने की योजना लेकर बढ़ते हैं और हद
से हद 'बिहारी यथार्थ' तक पहुँच पाते हैं. दीपक शर्मा की खमीर से रमेश उपाध्याय की सफाईयां (सारिका, कथा पीढ़ी विशेषांक) याद आनी चाहिए. एक ऐसा प्रेम जो
प्रतिप्रेम को जन्म देता है कि उसी से उपजता है.
सुरभि पांडेय की डगलस का जमाना नहीं, इधर तुम हो प्रभाकर कहानी में प्रेम की वापसी की सूचना है.
पर अभिव्यक्ति का आवरण इतना जटिल है कि प्रेम की नन्हीं जान कहीं दुबकी सी लगती
है. शायद सहज प्रेम को 'जस्टीफाई' करने के
लिए हिंदी कहानी को और कालयात्राएँ तय करनी हैं. लेखिका ने शीर्षक में जिस बेबाकी से प्रभाकर को याद दिलाना चाहा
है कि यह जेम्स डगलस का जमाना नहीं है वह बेबाकी राधिका में अनुपस्थित है. बल्कि
इसके विरुद्ध राधिका अपने अस्तित्व को स्वीकार किये जाने के समर्पण में बेचैन है. नवीन सागर की मोर एक लोककथायी जादू से रची गयी है. कहानी
यह चिंता करती है कि किस तरह "हुल्ले जो गरीब है, कमजोर है, विचलित हुए बिना पिटता चला जाता है और
आख़िरी सांस तक अपनी जिद और सनक को छोड़ता नहीं है. कितना मुश्किल होता है एक ऐसा
आदमी जबकि बस्तियां आबादियों से भरी पड़ी हैं." कहानी उस त्रासदी को पकड़ती है
कि एक मोर के प्रति कई मिथक रच रहे गांव में वह हुल्ले बिना कोई हलचल पैदा किये मरकर
अंततः मोर में बदल जाता है और लोग हुल्ले को नहीं जानते. बसंत
कुमार की सौगात में जीवन की शांत झील में धीरे-धीरे किसी हलचल की तरह
आतंक फैलता है और तरलता बची रहती है. यह जीवन
का सहज विश्वास है. मदनमोहन की कोई झूठ नहीं में माहौल को अपनी गिरफ्त में लेती और धीरे-धीरे
उस पर हावी होती साम्प्रदायिकता और सम्प्रदायवादी सोच है. कमल चोपड़ा की शर्म में एक बच्चा दुनिया के बह रहे सत्त को
बचाता है. हरिश्चंद्र अग्रवाल की परीक्षा में आस्था-अनास्था के बीच झूलती कुछ
चालाक मानसिकता है जो ऐसे द्वंद्व को 'एफोर्ड' कर सकती है. ज्ञान प्रकाश विवेक की एक स्त्री का एकांत राग अवास्तविक के सम्मोहन की फैंटेसी है.
महेश कटारे की द ग्रेट इंडियन सर्कस में राजनीतिक जोकरबाजी का बढ़िया करतब है. वैसे कहानी में सांस्कृतिक ढंग से
मुस्करानेवाली विमलाजी और जालसाजी के पवित्र शब्द राव जी के मुँह में रखने वाले
कामरेड विक्रम जी, जो कहते हैं, "ईश्वर ! यदि तू है तो मुझे क्षमा मत करना क्योंकि मैं जानता हूँ कि क्या कर
रहा हूँ" के चरित्रों का
विकास इसे भारतीय राजनीतिक दिवालियेपन की महत्वपूर्ण कथा रचना बना सकता था. फिलहाल
यह एक व्यंग्य तो है ही. सुमति अय्यर, विरल राग में लिखती हैं, "लड़की सपनों की मौत बर्दाश्त नहीं कर पाती पर औरत सपनों की मौत से निस्संग
रहती है" तो यह अन्दाज अच्छा
लगता है. पर फिर यशी के सपनों का सीमित कैनवस में फैल जाना और यथार्थ के साथ उसकी
असंगतता को अस्वीकारती रुमानियत भरी जिद से लगता है मानो "उस हल्के आलोक में शांत समुद्र के तट पर चट्टानों के पास रेत में एक
सिम्फनी शांत हो गयी." हरि भटनागर की मुन्ने की उमर में जीवन की गतिक लयबद्धता की अनुपस्थिति
का अनुभव है. मध्यवर्गीय जीवनचर्या की सीमित इच्छाओं भरी दिनचर्या में भयावह सुख
के विलासी आतंक की तरह दाखिल होती शंकर की कहानी प्रस्थान एक अद्भुत रचना है. इसे अपनी स्थिति में
लौटने के स्वीकार के रूप में लिया जाना चाहिए. तेजिन्दर, तोकीदादा में सामाजिक व्यवस्था के रेशों की पहचान
करते हैं जो धार्मिक उन्माद में अचानक गड्ड-मड्ड हो जाता है और हम इस कायम दुनिया
में कुछ अस्पष्ट सा जीवन लिये रह जाते हैं. चित्रा मुदगल की बेईमान में कहानी अपना पक्ष कहने से रह जाती है. ममता कालिया की एक पति की मौत संवेदनशील रचना है. लेखिका ने इसका सलीके से विकास किया है कि किस तरह सिया
संस्कारों के प्रति विद्रोह बचाते हुए अपनी इयत्ता में कायम रहती है. और फिर जैसे
अपने अंदर वह अपने मृत पति नमन को 'डिसकवर' करती है और अपनी संवेदना से अपने दुःख को
पाती है.
कहानी और कहानी के इस जमाव के बाद इस अंतराल की कहानी चुनना उस अनुभव को
नकारना था जो आज की कहानी में आम होता है. और न केवल 'कंसेप्शन' वरन् 'ट्रीटमेंट' में भी जो कहानी अपना अलग प्रभाव रखती है
वह है बल्लभ सिद्धार्थ की अश्लील (हंस, अगस्त 1991), प्रकाशकांत की अमर घर चल (हंस, सितंबर 1991) और रामधारी सिंह दिवाकर की द्वारपूजा (वर्तमान साहित्य, जुलाई 1991). इन कहानियों को पढते हुए मैंने जानने की कोशिश की - इनमें वह क्या है जो
इन्हें औरों से अलग करता है. पर इससे पहले मैं भुवनेश्वर की पुनर्प्रकाशित कहानी भेड़िये (हंस, मई 1991) की चर्चा जरूरी समझता हूँ
क्योंकि इससे शायद कहानी के उस रूप को पाने की कोशिश बची रह सकती है आज की हिंदी
कहानी जिसे बहुत 'मिस' करती है.
भुवनेश्वर की भेड़िये कहानी
को वहां से समझा जाना चाहिए जहां यह मनुष्य की नियति के समय को
पकड़ने के क्रम में वैयक्तिक त्रासदी को मानवीय महात्रास में बदल देती है. इफ्तखार के बहाने एक पीढ़ी या कहिये एक
वर्ग के उस जीवन दर्शन को समझा जा सकता है जिससे वह अपनी नियति को उस समूह की
नियति से अलग कर लेता है जो समान रूप से उसकी भी है. इस तरह वह एक अंतर्विभाजन
रचता है और चीजों की प्राथमिकता उनकी उपयोगिता से तय करता है. यहीं से कुछ को कुछ
से कमतर और कुछ को कुछ से बेहतर समझने की मानसिकता जन्म लेती है जिसके अधीन वह
टिप्पणी करता है- पूरे बंजारों में उसका गड्डा अफसर था. यह एक असमानता का
श्रेष्ठवादी दर्शन है जहां भेड़िये के खिलाफ लड़ाई को वह अपने बचे
रहने की जद्दोजहद से जोड़ता है. तब उसे बैल उतने ही चाहिए जो गाड़ी दौड़ा ले जा
सकें, नटनियां तभी तक जब तक वह गाड़ी पर बोझ न हों. यहीं कहीं वह उस प्रेम को
नकारता है जिसे उसने एक क्षण बचा रखा था और बादी के बदले दूसरी नटनियां को कूदने के लिये कहा था. यह एक
किस्म की प्रतिहिंसा थी जो हिंसा को जन्म देती है. वह प्रेम को उसके सिरे से
नकारने की चेष्टा करता है, "तुम खुद कूद पड़ोगी या मैं तुम्हें धकेल
दूं." और नटनियां उसी तर्ज पर चांदी की नथ उतार कर
बाहों से आंखें बंद किये कूद जाती है. दरअसल यह प्रेम का वह ठहरा हुआ खास क्षण है
जो इस नष्ट होते समय में बचा है. इफ्तखार को शायद शंका होती है कि बादी को वह
कूदने के लिये नहीं कह सकेगा या शायद बादी ही उस पर भरोसा किये हो कि वह उसे बचा
लेगा. इस तरह प्रेम उसके अन्दर की कमजोरी बन जाता है जो उसके अपने होने की शर्त के विरुद्ध जाता है. वह इससे निजात पाने के लिये अपनी
झिझक के ऊपर यह कहने का साहस करता है, "तुम खुद कूद पड़ोगी या ...." यह एक
क्रूर किस्म का व्यक्तिवाद है. बादी इसका प्रत्युत्तर है. वह चांदी की नथ उतारकर
उसके हाथों में दे देती है जैसे आभास दे रही हो कि वह इसी के लिये रुकी थी. इस तरह
वह अपने अन्दर के प्रेम का अंत करती है और बाहों से आंखें बंद किये अपनी नियति को
स्वीकृत करती है. वह इफ्तखार के पिता की तरह कोई निर्देश नहीं देती कि वह उसके
मरने के बाद उसके जूते नहीं पहने यद्यपि वो नये हैं. बादी का यह कूद पड़ना
रीतिकालीन प्रेम के उत्सर्ग की नैतिकता नहीं रचता है. बल्कि एक झटके से वह अपनी उस
स्थिति का संकेत करती है जो उस वक्त उसकी है और जिस असमान नैतिकता ने प्रेम का अंत
कर दिया है जैसे प्रेम था ही नहीं.
…पर नियंता होने के दंभ ओढ़े इफ्तखार अपनी
नियति को स्वीकार नहीं करता, वह अपने को 'एलियनेट' करता है. धीरे-धीरे वह सबको अपने से
काटता है और एक खोखला आश्वासन ओढ़े रहता है कि अगर जिन्दा रहा तो मैं एक-एक भेड़िया काट डालूंगा. यह उसका आत्मस्वीकार है कि सारा व्यापार मात्र उसके
जिन्दा रहने के लिये है. इफ्तखार कूद पड़ता है कि उसकी जिंदगी थोड़ी है. वह अपने
अस्तित्व को 'डाइल्यूट' कर जिंदगी को एक यूनिट बनाता है. और
मृत्यु को विवश अंगीकार करता है क्योंकि उसकी जिंदगी अपने बेटे की जिंदगी से 'श्रेष्ठ' नहीं है. वह अपने रचे दर्शन से अपनी स्थिति को परिभाषित करता है और पाता
है. यही वह क्षण है जहां आप त्रास रचते भी हैं और उसमें शामिल भी होते हैं.
धीरे-धीरे वह सारा अंतर मिट जाता है जो आपमें था, जो आपमें नहीं है. इफ्तखार के पिता में
जीने का मोह था और बहाना भी. वह बुढ़ापे में बड़ा हंसोड़ हो गया था. वह अपने भाव
की दुनिया रचता है - मारते-मरते मैं कह चलूंगा खारे-सा-खरा कोई निशानेबाज नहीं है.
वह अपने जूते को लेकर कहता है, अगर मैं जिन्दा रहता तो दस साल और पहनता.
इस तरह दस साल वह संबंध और रहता जो खरे और उसके बाप के बीच था.
लेकिन इफ्तखार के पिता ने खुद को न्यूनीकृत कर लिया.
इफ्तखार अपने सतत 'एलियनेशन' से कब मुक्त होता है? शुकदेव सिंह इसे 'खत्म होती दिलचस्पियों की रफ़्तार कहते हैं पर यह शायद उतना सटीक नहीं है.
क्योंकि धीरे-धीरे वह अपने इस अस्तित्ववादी दर्शन से एकाकार होता है कि दुनिया
उसके लिये घूम रही है. स्वयं मात्र को बचाने के लिये सारे गृहस्थी, सारी भावनाएं, सारे मूर्त-अमूर्त भाव नष्ट कर देता है.
ऐसा लगता है वह भेड़िये से नहीं भाग रहा बल्कि बैल, नटनियां और पिता को भेड़ियों के बीच छोड़कर भाग रहा है. क्योंकि यह उसका अपना रचा दर्शन है. वह
अपनी नियति को बैल, नटनियों और पिता की नियति से जोड़कर नहीं
देखता. यही उसका खतरा है जिसे वह उठाना नहीं चाहता. वह दुनियावी प्रतिकूलताओं के
खिलाफ एक वर्गीकरण रचता है. यह उसका श्रेष्ठि भाव है. जब तक वह बैल को गाड़ी भागने
के काम का समझता है, नटनियों को बेचे जाने के मसरफ की समझता
है और पिता को हंसोड़ समझता वह अपने को केन्द्रीय इकाई मानकर दुनिया को झेलता है और
खतरे से घिरा है. इसलिए वह या फिर उसके पिता अपनी स्थिति की भी सही समझ विकसित
नहीं कर पाते. बड़े मियां अवश भाव से स्वीकारते हैं, "भीख मांग कर खाना बंजारों का दीन है हम
रईस बनने चले थे." इस चिंता में ग्वालियर की उन गदबदी नटनियों की कोई चिंता
नहीं है 'जो पंजाब में खूब बिक जाती हैं'. यह संवेदना का एक 'क्लोज सर्किट' है जो वर्गीय भिन्नता पर आधारित समाज की
अधिरचना में मदद करती है. जहां हम जिस व्यवस्था को झेलते हैं उसे पोषित भी करते
हैं.
पर कहानी यह साफ-साफ कहती है कि जब तक खारे का पिता अपनी नियति को भेड़ियों के बीच फेंक दिये गये बैल और नटनियों की स्थिति से नहीं जोड़ता
प्रतिकूलताओं का अंत नहीं होता. यह पिता की स्थिति का नटनियों की स्थिति से एकाकार
हो जाना ही व्यक्ति के समूह में बदलने की प्रक्रिया की भूमि है. जिसे शुकदेव सिंह संज्ञा के नामिक रूपांतरण या तत्सम से तद्भव में बदल जाने की क्रिया कहते
हैं. इफ्तखार अपना सब कुछ खोने के बाद खारु में बदल जाता है. यह उसकी उस छद्म
वैयक्तिक आइडेंटिटी का अंत है जिससे वह अब तक घिरा था. वह अब एक व्यक्ति नहीं
बल्कि एक इच्छा रह गया है जिससे उसकी सामूहिकता अभिव्यक्त होती है. दूसरे ही साल
उसने साठ और भेड़िये मारे. इसके पीछे कोई रईस बनने की कथा नहीं थी
न ही खुद को बचाने का संघर्ष वरन् यह उसकी सामूहिक स्मृति थी जो उसे भेड़िये के खिलाफ करती थी. इस कहानी से
यह समझा जा सकता है कि एक झुके आदमी के सीधा खड़ा होने की प्रक्रिया किस-किस मुकाम
से गुजरती है.*
* (भेड़िये पर यह टिप्पणी डा. शुकदेव सिंह की 'हंस', मई 1991 में प्रकाशित टिप्पणी "नयी कहानी की पहली कृति भेड़िये” से आरंभ बहस के क्रम में ‘बीच बहस में’ 'हंस' सितंबर,1991 में "मनुष्य की
नियति का समय" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी और
चर्चित रही थी. 'हंस' के नवंबर, 1991 अंक में उस बहस की समापन टिप्पणी "भेड़िये और भेड़िये" में डा. शुकदेव सिंह ने इस टिप्पणी की खास तौर पर चर्चा की थी
और इसे महत्वपूर्ण माना था. बाद में यह टिप्पणी इसी रूप में 'संदर्श' के भुवनेश्वर पर केंद्रित अंक (अतिथि संपादक-चन्द्रमोहन दिनेश) में 'हंस' से साभार प्रकाशित हुई थी.)
"आपका निर्णय आपको निर्णायित और परिभाषित
करता है," ज्यां पाल सार्त्र की इस पंक्ति से बल्लभ सिद्धार्थ अपनी कहानी अश्लील आरंभ करते हैं. 'आपका निर्णय, जो आप सदी की उतराई में करते हैं. निर्णय
वह जो भेड़िये में खारु करता है. निर्णय वह जो अश्लील में अपंग अधेड़ करता है- धीरे-धीरे सब कुछ - लड़की
(नंदिनी), राजे, अपना दुःख और एकांत एक अश्लील दुनिया के हवाले करता है. "रेगिस्तान से
जिन्दा बचने का एक ही उपाय होता है जैसे भी हो इसे पार किया जाए, जैसे भी हो." रेगिस्तान- कहीं यह भेड़िये के तनाव को ही तो आज के संदर्भों में
नहीं महसूसती, पर नहीं कि भेड़िये में जो 'रेसिस्ट' न कर पाने की 'योग्यता' है वह यहां 'रेसिस्ट' कर पाने का 'स्वीकार' है. एक प्रबुद्ध पाठक ज्ञानी राम महतो (हंस, जुलाई, 1987) लिखते हैं, "इन कहानियों से होकर गुजरना एक आतंक भरे
माहौल से होकर असहज एवं सचेष्ट रूप से गुजरना है."
बल्लभ सिद्धार्थ अधेड़, लड़की और पुरुष की कहानियां श्रृंखलात्मक रूप से एक उपन्यास के लिये लिख
रहे हैं और इससे कई बार पाठक भ्रमित भी होते हैं. इक्कीसवीं सदी की ओर, ईडन का बगीचा, बिना खिड़कियों का कमरा, चौबीसवां नरक, इतिहास का बैताल और अब फिर अश्लील पढ़ते
हुए मुझे लगा बल्लभ सिद्धार्थ की यह यथार्थ की तह तक पहुंचने की जिद है जो कभी-कभी अनियंत्रित आक्रोश के
रूप में भी प्रकट होती है. स्पष्टतः अगर कोई रचना इतने लंबे अंतराल तक रचनाकार को
दबाव में रखती है तो यह आभास होता है कि वह इससे कितना गहरे जुड़ा है. अश्लील की जो खासियत है कि अपनी खीझ और आक्रोश को लंबे
संश्लेषण के बाद यह कहानी अपनी सम्पूर्ण नियति के रूप में पा सकी है. सबसे बड़ी
बात जो कहानी करती है कि वह अश्लीलता का आतंक तोड़ती है. वहां वह अश्लील नहीं है
जो अनावृत है, नंगा है बल्कि वह है जिसे हम अपनी नकार में स्वीकार किये चलते हैं. जहां
हां और ना करने का विकल्प शेष हो जाता है. शम्भू गुरु, जो नेता का छुटभैया संस्करण है अपनी
अश्लील जिज्ञासा से 'नंदिनी बाई, नंदिनी बाई' पुकारता आता है और कोई सुराग न पाकर
सिलाई के लिये कपड़ा और पचास रुपये एडवांस देकर चला जाता है, और जिसे लड़की झिझकते हुए और अधेड़ समझते हुए स्वीकार करते हैं. और फिर
चहारदीवारी पर खड़ा होकर मकान मालिक का बेटा मोंटू किराया वसूलता है और अधेड़ उसी
पचास में दस मिलाकर उसे टरकाता है. इस तरह वह लाचार समझे जाने को जीने की शर्त में
शुमार कर लेता है. लगता है जैसे प्रतिकार का भी अंत हो गया कि अधेड़ ने शम्भू गुरु
द्वारा लड़की की समूची देह पीने को स्वीकार कर लिया है. यहीं अश्लीलता आरंभ होती
है. और आप ऐसी दुनिया जीने के लिये पाते हैं जहां राजे जीतने का भेद जानकर जुआ
खेलने के लिये गुली चुराकर बेचता है और सौदेबाजी से पांच रुपये ऐंठता है. यह
अश्लील दुनिया में नयी पीढ़ी के अस्तित्व का संघर्ष है. यहां अश्लील वह नहीं रह
जाता है जो राजे ने किताब के दो आदिम मुद्रा में एक नग्न युग्म पर मामा और मम्मी
लिखा है. अश्लील तो वह है जो बिट्टी इककीस सौ की देनदारी का परचा पुरुष को देती है
और पुरुष करुण मुस्कराहट से विवाह मंडप में पहनाये पत्नी की अंगूठी वाला हाथ आगे बढ़ाता है. यह यशपाल की फूलों का कुरता और परदा की परंपरा का सीधा विकास है. इस पर अधेड़ की टिप्पणी
है,"हम किस कदर हिंसक वक्त में रह रहे हैं."
हमारी हिंदी कहानी लेखकीय संवेदन क्षमता की श्रेष्ठता और
पाठकीय संवेदन योग्यता के प्रति संदेह से आक्रांत रहती है और इसलिए हमारी कहानी
में 'स्पेस' का अभाव रहता है. वही सच है जो कहानी में है और वही सारा सच है, कुछ ऐसा ही भाव आज की कहानी प्रस्तुत करती है. और इसलिए हिंदी कहानी में
अनुपस्थित-पात्र योजना का अभाव है. यह चीज फणीश्वर नाथ 'रेणु' में
देखी जा सकती है. उनके यहां अनुपस्थित पात्र अक्सर कहानी को 'स्पेस' और 'डाइमेंशन' देते हैं. प्रकाश कांत की अमर घर
चल (हंस, सितंबर, 1991) का जिक्र इसलिए किया जाना चाहिए कि यह उस 'टेकनीक' को अपनाती है. अमर घर चल में
केवल वह सच ही कहानी नहीं है जो बच्चे के प्रति आपके मासूम चिंताओं से रचा जाता है, बल्कि बच्चे के माध्यम से आप उस पिता के तनाव के आतंक तक पहुंचते हैं जो
कहानी में अनुपस्थित है और जो आतंक बच्चे की दुनिया में रिसता हुआ बहता है. जब आप
यह मान लेते हैं कि कहानी ने 'रिलेशन' का अंत कर दिया है कि सारे पात्र अब 'सेपरेट यूनिट' हैं वहां माँ, माँ नहीं है, पिता, पिता नहीं हैं और बच्चा, बच्चा नहीं है तो आप पाते हैं कि बच्चा 'इररेशनल' होने की हद तक 'रिलेशन' को 'फाइंड' करना चाहता है और आप एक बेचैनी से भर
जाते हैं. आप उस बेचैन दुनिया में प्रवेश करते हैं, बच्चा जिससे मुक्त होना चाहता है. यह जो
एक पीढ़ी को 'एलियनेट' कर दिये जाने वाला माहौल है, कहानी उसको पकड़ना चाहती है और एक
तार्किकता से जीवन के अनुपस्थित भाव को पा लेने की इच्छा से भर जाती है.
रामधारी सिंह दिवाकर |
विजय प्रताप की कहानी खराब लड़की ( हंस, जनवरी 1991) को
मूल्य के अंत को सार्थक व्यावहारिकता के रूप में स्वीकार लिए जाने की कोशिश के रूप
में समझा जा रहा है पर यह कहानी उतनी सहज नहीं कि इस मुद्दे पर आप इतनी आसानी से
चिढ़ जाएं. दरअसल यह परिवार में रिश्तों को तार्किक ढंग से प्राप्त करने की वह 'एप्रोच' है जहां नारी, प्रेम के अंत के इस समय में अपने को
मुक्त कर सकती है. सुथि द्वारा आत्म-समर्थित जीवनशैली को पाने की यह प्रक्रिया
कितनी सहज है इसका संकेत पिता और बेटी के बीच चाकू को उठाकर फेंक दिये जाने में
मिलता है. इस कहानी से समय के तनाव को 'फीमेल नेरेशन' में आप उसी तरह पाते हैं जिस तरह अखिलेश की चिट्ठी ( हंस, अगस्त 1989) से 'मेल नेरेशन' में. श्यामा की रोटी (अशोक राही, वही) एक अच्छी प्रेम कहानी है जिसमें
पगली श्यामा उस प्रेम की प्रतीक है, अनु द्वारा रोटी दिये जाने के बाद भी
जिसका अंत इस दौर की नियति है. 'नैरेटर' (narrator) का कहानी के मध्य सीधा संवाद करना इसे रूमानी होने से
बचाता है. लवलीन की कुंडली ( वही, फरवरी 1991) आफिसों में कम कर रही, और 'मेल कमेन्ट' से जूझती स्त्री की त्रासदी का बयान तो
है पर इसे वैचारिकता को लेकर और सजग होना चाहिए था. सुभाष पन्त की पहाड़ की सुबह (वही, मार्च 1991) लोककथा
का गंभीर आनंद देती है. नरेंद्र नागदेव की लिस्ट ( वही) बेरोजगारी की स्थितियों पर लिखी अच्छी कहानी तो है पर इससे एक महत्वपूर्ण
संकेत लिया जा सकता है कि यह वह कहानी है जो अनुभव को यथार्थ में बदलने की हडबड़ी
से उपजती है. इससे अलग यहां यह जिक्र किया जाना चाहिए कि फैंटेसी के इसी उपयोग से भाईयों, मुझे जड़ की तलाश है (सत्यनारायण, हंस जनवरी 1987) जैसी उत्कृष्ट रचना संभव हो सकी है.
कहा जाना चाहिए हिन्दी कहानी में एक शहर होता है जो गांव
सा दीखता है, एक गांव होता है जो शहर सा दीखता है और एक बिहार होता है जो किसी सा नहीं दीखता है. वैसे बिहार वाले चाहें तो
इस पर गर्व कर सकते है कि इस 'बिहार' का विकास हिन्दी कहानी में बिहार से बाहर भी बहुत हुआ और नकली जनवाद का
आतंक रचने में ये कहानियां अव्वल रहीं. अब सुधीश पचौरी भले चिंता करें कि बिहार की कहानी में भागलपुर की खबर क्यों नहीं है? मुझे लगता है कि बिहार की कहानी का जो मूल संकट है वह यह कि यह न केवल अपने
प्रान्त के परिवर्तनशील यथार्थ की उपेक्षा करती वरन् उससे काफी हद तक अनभिज्ञ भी
है. इतिहास- बोध जैसी चीज का यहां बिल्कुल
अभाव है और इसलिए यह अपने समय में अपनी अजनबीयत को पकड़ पाने में पिछड़ जाती है और
अक्सर यथार्थ को एकांगी नजरिये से देखती है. इस 'टोटल कंसेप्शन' के अभाव के बाद बिहार-कहानी में विजन का
विकास हो पाना तो मुमकिन न ही था, पर जैसा कि हिन्दी कहानी में होता है वह भाषिक क्षमता से विजन की
अनुपस्थिति को छुपाती है और गाहे-बगाहे इसी प्रक्रिया से विजन को पाती है, वह भाषिक क्षमता प्राप्त करने में भी बिहार-कहानी अक्सर चूकती है. जबकि
बिहार में कई सशक्त गद्य परंपराओं- वह चाहे शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का हो या फिर आंचलिकता का मिथ गढ़ने वाले 'रेणु' का- लंबा इतिहास रहा है. ऐसे में आज यह
देखना हैरत भरा है कि बिहार के कहानीकारों की कोई ऐसी व्यक्तिगत पहचान नहीं है कि आप उन्हें कुछ मानक आधारों पर अलग कर
सकें. इस सिलसिले में शायद एक नाम है जिसे विचार में अवश्य रखा जाना चाहिए, वह है- चन्द्र किशोर जायसवाल. इन्होने हिन्दी कहानी में जो खास चीज
विकसित की है वह है कथा के समांतर सहज व्यंग्य की, सहायक भाव की तरह, उपस्थिति जो बिना किसी बड़बोलेपन के मनुष्य के अंतर के छद्म पर आघात करती
है. और यह इसके बावजूद कि इनके यहां आंचलिकता न केवल आभिजात्य है, वरन् कथात्मकता की 'डिमांड' भी ज्यादा है.
चन्द्र किशोर जायसवाल |
विद्यासागर नौटियाल की कहानी फट जा पंचधार (हंस, अप्रैल 1991) को पढ़ना एक अनुभव से गुजरना है. स्त्री की तयशुदा
नियति को अपनी मौलिक चेतना से नकारती रक्खी पंचधार के फट जाने की इच्छा के साथ
अविस्मरणीय ढंग से उपस्थित होती है. संस्मरण की तरह लिखी गयी जितेन्द्र की कहानी नंद के लाल (हंस, मई 1991) अपने समय के सूचक के रूप में याद रखी जानी चाहिये. जितेन ठाकुर की वो एक दिन (हंस, जून 1991) बाल-कथा सी याद आती है और यह हिन्दी कहानी के लिए एक अच्छी बात भी हो सकती
है. जयनंदन की गिद्ध झपट्टा (हंस, जून 1991) का सुन्दर विकास एक तय अंत तक पहुँचता है. पिंटी का साबुन के संजय खाती की पुतला (हंस, जुलाई 1991) यथार्थ की संरचना को उसके सही और समूचे स्वरूप में पाती है. महत्वपूर्ण बात
यह है कि खाड़ी युद्ध पर लिखी यह कहानी साम्प्रदायिकता की भी शिनाख्त करती है. वे
कथाकार जिनकी समझ साम्प्रदायिकता और उसके विरुद्ध रचनात्मक हस्तक्षेप को लेकर
गड्ड-मड्ड है, इससे संकेत ग्रहण कर सकते हैं. इसी वैज्ञानिक समझ का उपयोग विजय ने अपनी कहानी गोह (हंस, जुलाई 1991) में किया है जबकि गिरिराज किशोर की गुमचोट (हंस, जुलाई 1991) में यह ज्यादा साफ़ नहीं है. गोह में कासिम का वैचारिक सामूहिकी से
एलियनेट कर दिया जाना विचार पर आज का सबसे बड़ा संकट है.
राजेन्द्र चंद्रकांत राय की पौरुष (हंस, जुलाई 1991) के बहाने बटरोही 'हंस' का विरोध 'नवभारत टाइम्स' में कर चुके हैं और राजेंद्र चंद्रकांत राय अपना बचाव भी. राजेंद्र चंद्रकांत राय का यह कहना बिल्कुल सही है कि कहानी पर
अपने कलीग (colleague) की टिप्पणी उद्धृत करने के के बजाय बटरोही खुद टिप्पणी क्यों नहीं करते? बटरोही जी समर्थ आलोचक हैं और उन्हें ऐसी सुविधा
की जरुरत कतई नहीं होनी चाहिए. राजेंद्र चंद्रकांत राय की कहानी पौरुष और औरत का घोड़ा (वर्तमान साहित्य, सितंबर 1991) शिक्षा संस्थानों के शैक्षणिक स्टाफ उर्फ शिक्षकों के आपस की
रुमानियत रहित, 'शेष-समय-प्रेम' की कहानी है. इस संदर्भ में एक दिलचस्प
बात सामने आती है वह यह कि कम-से-कम हमारे यहां छात्र अब कालेज के जरूरी उपकरणों
में शामिल नहीं हैं. और यह अकारण नहीं है अगर कॉलेज आधारित कहानियों में छात्र अब
उपस्थित नजर नहीं आते हैं. वैसे वे अपनी सामूहिकता में अपना मोर्चा (काशीनाथ सिंह) जैसे उपन्यासों में भले मिल जाते हों पर वैयक्तिकता
को लेकर जिस तरह कॉलेज जीवन में पनपने वाले प्रेम संबंधों का चित्रण रांगेय राघव ने अपने पहले उपन्यास घरौंदा में किया वह अब दुर्लभ सी चीज हो गयी है. आज के
लेखकों को कॉलेज पर कुछ लिखना हो तो जाहिर है उन्हें कॉलेज के अध्यापकों और
अध्यापिकाओं के वाद-विवाद और प्रेमवाद से ही काम चलाना पड़ेगा. पर असली सवाल तो यह
है कि छात्र अगर स्कूल-कॉलेजों में नहीं हैं तो वे कहां हैं? सड़कों पर तो वे हैं नहीं! खेत-खलिहानों, जंगल-मैदानों में तो कदापि नहीं. नाव और
रिक्शा तो आउट डेटेड चीज है और रेल बोरियत भरी! आज की हिंदी कहानी में छात्र बसों
में हैं. बस!
सुरेश कांटक की कहानी धर्म संकट (हंस, अगस्त 1991) में अवधेश का संकट आज के शुद्धतावादी हिंदी कथाकार का संकट है जो अपनी वैचारिकता से न तो किसी
नैतिकतावादी संबंध को 'जस्टीफाई' करने की स्थिति में है और न ही उसके पास
किसी भौतिकतावादी संबंध की दैहिकता को स्वीकार करने का साहस है. वह इसके मध्य फंसा
है जैसे उसकी कहानी. रंजन जैदी की कहानी तब और अब (इंद्रप्रस्थ भारती, मार्च 1991) भी इसी का उदाहरण है, जहाँ लेखक फ्रायड को पढ़ने के बाद भी
नियतिवादी आग्रह से मुक्त नहीं है. प्राइवेट लाइफ की गीतांजली श्री की दहलीज (हंस, अगस्त 1991) में भाषा की नफासत पहले चौंकाती है प्रभावित बाद में करती है. मृणाल पांडे की कहानी हिर्दा मेयो का
मंझला (हंस, अक्टूबर 1991), शशांक की कहानी सुदिन (हंस, वही)और गुलज़ार की कहानी सनसेट बुलेवार (हंस, वही) अपनी पूर्ण संभावना का उपयोग नहीं
करती है और अपेक्षा अधूरी रह जाती है. पर इसके बावजूद गुलजार की सनसेट बुलेवार में चारुलता का अपने मकान के प्रति मोह अपने समय के विरुद्ध कुछ जो
व्यक्तिगत है, प्रिय है को बचा लेने की इच्छा है और समय की नृशंसता जिसकी अस्ति का अंत कर देती है. सी. भास्कर राव की आतंक (हंस, वही) अपनी कथात्मकता और उसमें अंतर्निहित
आस्था के कारण प्रभावी है. हवन (गंगा) से सुपरिचित हुईं सुषम बेदी की कहानी पार्क में (हंस, वही) आयी है जो अंत में इराक-अमरीका
युद्ध में एक मनुष्य के पक्ष के अकेले पड़ते जाने को पकड़ती है. विजय प्रताप की कहानी वैक्यूम (हंस, वही) वैज्ञानिक विजन का उपयोग करते हुए
प्रायोगिक और सैद्धांतिक के अंतर्विरोध को छूती है और इस अंत तक पहुंचना कि कोई
सिद्धांत निरपेक्ष नहीं होता कि बचपन में जो शिक्षा हमें दी जाती है उसे अमल में
लाने के लिए वैक्यूम जैसी किसी विशेष स्थिति की जरूरत होती है, सचमुच अपनी सीमाओं में हमें परेशान करता है. असलम की यप-यप-यप्पी (हंस, नवम्बर 1991) मूल्यों के बदलाव और धीरे-धीरे उसमें अमानवीयता के सहज शुमार का ग्राफ है. शफी जावेद की कहानी अजनबी (हंस, वही) की शांत भाषा का तनाव महत्वपूर्ण
है. एक सवाल जो कहानी उभारती है -क्या औरत से शादी करने के लिए उसके धार्मिक
विश्वास को भी अपनाना जरूरी है? आनन्द बहादुर की कबाब (हंस, दिसंबर 1991) खंडश: प्रभाव में एक अच्छी कहानी लगती है पर विचार के
रूप में यह निकट-दृष्टि से मुक्त नहीं हो पाती है. और यह आश्चर्यजनक भी नहीं है
क्योंकि धर्म को लेकर जिस संक्रमणशील दौर में हम रह रहे हैं वहां अपने नजरिये को 'एबसोल्यूट' रूप में विकसित कर पाना बहुत कठिन है.
ऐसा लगता है इस कहानी में लेखक अजाने में उस स्थिति को स्वीकृत कर रहा है जिसमें
दबावों के बीच एक आदमी अपनी मान्यताओं के साथ सुरक्षित नहीं है.
आने वाले समय के तनाव को शिद्दत से महसूसने वाले रचनाकार के रूप में विनोद अनुपम का नाम लिया जाना चाहिए. उनकी पहली कहानी स्वप्न (सारिका) में आयी थी जो राजनीति के सीमान्त की
ओर इशारा करती, आज की स्थितियों पर बहुत सटीक रचना है. उनकी नयी कहानी शापित यक्ष, वर्तमान साहित्य पुरस्कार अंक की श्रेष्ठ कहानी है. यह अपनी शीर्षक संकल्पना में परंपरा के
मिथ का बहुत सजग इस्तेमाल करती है और समूची कहानी उसका निर्वहन करती है. इसके
अलावा वर्तमान साहित्य में निषेध (नारायण सिंह), माफ करो वासुदेव (वही), मदार के फूल (अनन्त कुमार सिंह), बांस का किला (नर्मदेश्वर), सबसे बड़ी छलांग (रामस्वरूप अणखी), अपूर्व भोज (रमा सिंह), प्रतिहिंसा (राणा प्रताप), संशय की एक रात (कृष्ण मोहन झा) आदि कहानियाँ
अपने महत्व में पठनीय हैं. सिम्मी हर्षिता की कहानी इस तरह की बातें (वर्त्तमान साहित्य, अक्टूबर 1991) में जिस व्यवस्था से मुक्ति की कोशिश है उसके विरुद्ध किसी चेतना का विकास
कहानी नहीं करती है. प्रेम रंजन अनिमेष की ऐसी जिद क्या (वर्त्तमान साहित्य, अक्टूबर 1991) में आत्मीयता की जो प्रतीक्षा है वह हिंदी में बूढ़ी काकी (प्रेमचंद) जैसी कहानियों के सिवा दुर्लभ है.
मध्यवर्गीय आत्म-रति को स्थापित करती सूरज प्रकाश की कहानी उर्फ चंदरकला जैसी कहानी का दो पत्रिकाओं वर्तमान साहित्य (नवंबर 1991) तथा संबोधन-91 में प्रकाशन संपादकीय नैतिकता पर प्रश्न
लगाता है. सूरज प्रकाश जी की ही लिखी टिप्पणी "अश्लीलता
के बहाने कुछ नोट्स" (हंस, जून 1991) के संदर्भ में ही सवाल उठता है कि अगर उनका आग्रह चंदरकला को 'इरोटिक' न माने जाने का है तो क्या यह उनके ही
शब्दों में एक वर्ग को पशु करार किये जाने की कोशिश नहीं है. मैनेजर पांडेय ने अपने आलेख "यह कछुआ धर्म अभी और कब तक" (हंस, फरवरी 1991) में लिखा है - "व्यवस्था के शील पर चोट करने के लिए
अश्लीलता हथौड़े की तरह काम करती है." अगर सूरज प्रकाश की कहानी व्यवस्था के शील पर चोट नहीं करती तो फिर यह अश्लील
क्यों है? रघुनंदन त्रिवेदी की खोई हुई एक चीज (संबोधन-91) अपनी तलाश में शामिल करती है तो यह एक
बड़ी बात है. रूप सिंह चंदेल की चेहरे (संबोधन-91) में शैक्षणिक संस्थानों का वह चेहरा
सामने आता है जहां एक सहज व्यक्ति अपने को इस्तेमाल किये जाने और अंत में मोहभंग
को स्वीकारने के लिए विवश है.
'उद्भावना' रचनात्मक
जिद की पत्रिका है और यह इसी का प्रतिफलन है कि वह मुद्दों पर एक विचलन की स्थिति
पैदा कर पाती है. यही रचनात्मक जिद असगर वजाहत की आज की रचनाओं में देखी जा सकती है. वे
अपनी पूरी कोशिश से आपको स्तब्ध कर सोचने पर विवश करती हैं. और यह अकारण नहीं है
कि उद्भावना -24 में असगर वजाहत की बारह रचनाएं हैं. वे सांप्रदायिकता के
विविध पहलुओं के अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मता से निरीक्षण करती हैं. गुरु-चेला संवाद असगर वजाहत की चर्चित रचना-कड़ी है और प्रभावी भी, जहां बात बड़ी सहजता से मुद्दों तक पहुँचती है. असगर वजाहत की एक और कहानी नाला (पल-प्रतिपल, अप्रैल-जून 1991) एक अनिवार्य आतंक को सामने करती है कि अपनी चिंताओं के
मोर्चे पर हम कितने अकेले हैं. अशोक गुप्ता की ठहर जाओ सोनमुखी (वही) एक बालकोचित भावुक अपील है जो नानी के मौलिक व्यक्तित्व पर पड़ती हवेली की छाया का प्रतिषेध करती है और इसी बहाने एक वर्ग की मुक्ति की
फ़िक्र. मंजूर एहतेशाम की कहानी कड़ी (पहल-40) बताती है कि कारण
और परिणाम की दुनिया में हमारी जिंदगी किस तरह अपने भ्रम सहित निष्कर्ष और प्रयोग
में गुजर जाती है. शशांक की पूरी रात (वही) मर रही दुनिया में कठिन सपनों के
आंतरिक आतंक की कहानी है. भालचन्द्र जोशी की पहाड़ों पर रात (वही) बहुत ही अच्छी कहानी है. बिल्कुल
सीधी-सादी कहानी, एक सुलझी गंभीर भाषा जो अनुभव की
ईमानदारी से हासिल होती है और जो आदिवासियों के बहाने एक शोषित वर्ग के दुःख को
सच्ची पीड़ा से महसूसते हुए कहीं अपने को बचाने या 'जस्टीफाई' करने की कोशिश नहीं करती है. इसे पढ़ना
एक गहरे अनुभव से गुजरना है. यह बात कितनी अनुभूत पीड़ा से उपजती है, "मुझे लगा जंगलों में रहते हुए आदमी जिंदगी में जो
मिलता है उसी को बोते चलता है और धीरे-धीरे दु:खों का एक समानांतर जंगल खड़ा कर
लेता है."
जीवन में जो आदर्श है, बेहतर है की मासूम स्थापना का स्वप्न
लेकर 'पहल'-42 की कहानियां आती हैं. ये कहानियां
सामान्यतः किसी वैचारिक जीवट से प्रतिफलित न होने के बावजूद
आदर्श के प्रति अपने आग्रह को सरल कथा-उपकरणों से बचाती हैं. स्वयं प्रकाश की नेता जी का चश्मा में यह आग्रह नेताजी की मूर्ति के आँखों में बच्चे द्वारा बना सरकंडे का चश्मा लगा देखने और 'इतनी सी बात' पर हालदार साहब की आँखें भर आने से अभिव्यक्त होता है. तो सुबोध कुमार श्रीवास्तव की कहानी धक्का में 'बचऊ' द्वारा दीवार को पेशाब की धार से सींचने और उस पर उसकी माँ द्वारा आवाज
देने से कि - "नंगा रहेगा तो ऐसे ही खेल खेलेगा." इसी तरह परगट सिंह सिद्धू की कहानी मैं उदास हो जाता हूँ में खूबसूरत दुनिया के रंग को महसूसने से छूटती पीढ़ी है. लक्षमेंद्र चोपड़ा की स्टूल राजनीति की बढ़ती ऊँचाई के छद्म को पकड़ती
है और नत्थू द्वारा स्टूल बड़े सरकार को उनकी जरुरत के लिए भेंट करने की बात कर इस
निकाय में जन की स्थिति पर मासूम पर सार्थक व्यंग्य करती है और अंत में इसी आस्था
से मोहभंग की अभिव्यक्ति है. सुभाष शर्मा की कलकत्ते का जादू में हाथ की सफाई है और कलकत्ते को लेकर आये वक्तव्यों की श्रृंखला की एक और
कड़ी. इस लिहाज से अखिलेश की बायोडाटा एक महत्वपूर्ण कहानी है
क्योंकि सामान्य तरीके से विकसित होती हुई यह कहानी राजनीति के छद्म की प्रवृत्ति को पकड़ने की कोशिश में स्थितियों और चरित्रों के प्रचलित
मानकीकरण को नकारती हुई उस समय को अपने केन्द्र में रखती है जिसमें एक व्यक्ति की
बदलती मानसिकता उसे एक सफल राजनीतिज्ञ बनाती जाती है. यह कहानी ठीक उस स्थल को
छूती है जहाँ यह कहानी बनती है. ...और यहीं छूटती सावित्री है जो ऐसे संतान की माँ
बनती है - "जो पीली और दुर्बल थी, चिचुकी
हुई, बहुत बासी तरोई की तरह. उसमें जीवन के
चिन्ह नहीं थे, जीवन गायब था. बस जीवन की परछाई जैसे धप
से गिर पड़ी हो." इस तरह यह कहानी बदलते राजनीतिक परिदृश्य
में पीलियाई नई पीढ़ी के जन्म की भयावह सूचना देती है. और इससे राजदेव सिंह बिल्कुल
निर्लिप्त है. वे अपने बायोडाटा की 'मास-अपील' पर सोचते हुए संतरा छीलने लगते है. "संतरे में बड़ा रस था," यह कहानी की सबसे भयानक पंक्ति है जो एक आतंक की तरह
हमारे अंदर फैलती है. और यह वह संतरा है जिसके बारे में कवि केदारनाथ सिंह ने अपनी एक कविता में लिखा है -
“...अपने हिस्से का संतरा
मैं खाना चाहता हूँ
इसलिए मेज की तरफ
बढाता हूँ हाथ
और कैसा करिश्मा है
कि मेरे हाथ बढ़ाते ही
वह गोल-गोल मेज
अचानक हो जाती है
पृथ्वी की तरह विशाल और अनंत
.................................................
संतरा मेरा है
और मैं डर रहा हूँ सवेरे-सवेरे
कि कहीं यह सीधी-सी बात
कि संतरा मेरा है
विवाद में ना पड़ जाये ...!”(पहल - 37, 1988-89)
आज से लगभग पैंसठ वर्ष पूर्व की मान्यताओं को
समझने के लिए चंद्रकिरण सौनेरेक्सा की इज्जत
हतक (आजकल, अगस्त 1991) तथा विश्व प्रकाश दीक्षित 'बटुक' की भद्र महिला (आजकल, अक्टूबर 1991) पढ़ी जानी चाहिए. वे जो सीधी सच्ची कथा में ऊष्मा महसूसते हैं मुक्ता की जिन्दा है करनैल चंद (आजकल, अगस्त 1991) पढ़ सकते हैं. रमा सिंह की नयन जलधार (आजकल, जुलाई 1991) में आंसू का ड्रामा है. दिलीप सिंह की कहानी अपना कंधा अपनी लाश (आजकल, सितम्बर 1991) में अच्छा व्यंग्य है.
'इंडिया टूडे' (30 सितम्बर 1991) में माला भोजवानी का परिचय हिंदी कहानी के नए हस्ताक्षर के
रुप में कराया गया है. वस्तुतः भाषा व प्रस्तुति के लिहाज से कहीं भी उनकी कहानी
कम नहीं पड़ती है पर साथ ही वह कुछ नया भी नहीं जोड़ती है. चिंदी नामक इस
कहानी में केवल एक वाक्य - "मेरा वजूद अपनी सुरभि में खोकर
चिंदी-चिंदी हो चुका था," कहानी के आखिर में लिख सकने के
लिए कहानी तथा कहानी की एक पात्रा का नाम चिंदी रख देना लेखिका की कलात्मक अभियोजना तो
दर्शा सकता है पर इससे वह कहानी उस 'सौ फीसदी कला' वाले वृत्त से बाहर आने से रह जाती है जो ऐसी शैल्पिक सतर्कता से रचा जाता
है. चिंदी कहानी को पढकर कमला चमोला की लाल फूलों वाला दुपट्टा (धर्मयुग, 3-9 नवंबर 1985) अनायास याद आती है. हेमंत की कहानी झूठ का सच्चा अंश (धर्मयुग, 1-15 जनवरी 1991) अच्छी कहानी है जो अपनी समझ से
प्रभावित करती है. निर्मल वर्मा की अंतराल (साप्ताहिक हिंदुस्तान, 6-12 जनवरी 1991) में कहानी तक पहुंचना और उसे पा लेना एक अनुभव
है. रामदरश मिश्र की कहानी सोनू कब आएगा पापा (जनाधार भारती, अगस्त 1991) बल मनोविज्ञान पर आधारित रचना है
जिसकी भाषा बड़ी मनोरम है. महेश दर्पण की जमीन (जनाधार भारती, अगस्त 1991) में वही अखबारी तनाव है जो कि धीरेन्द्र अस्थाना की कहानियों में भी कई बार दीखता है. अशोक गुप्ता की नींद (जनाधार भारती, अगस्त 1991) छल-जीवन के निश्छल नींद की कथा है.
मैं बहुत हिचक के साथ कहना चाहूँगा कि सुशील कुमार की कहानी कनफूल (जनाधार भारती, अगस्त 1991) 'रेणु' जी की याद ताजा कर देती है, पर यहाँ वह जो अस्पष्ट है, रेणु की तरह कहानी में कुछ नया विस्तार नहीं
रच पाता. साथ ही बंसी के दुःख से चंदर बाबू के दुःख का साम्य रचनात्मक प्रतिबद्धता को
डगमगाता है.
बटरोही की कहानी भागता हुआ ठहरा आदमी (समकालीन भारतीय साहित्य -43) में जीवनशैली को निरंतर बदलता विचार
है तो कथा श्यामा सुन्दरी (समकालीन भारतीय साहित्य -43) में विजय मोहन सिंह ने तत्सम शब्दों से कथा कही है. धनेश दत्त पाण्डेय की कहानी मुर्गा हलाल (अक्षरा, अप्रैल-सितंबर 1991) अपनी सम्पूर्ण संभावना का उपयोग नहीं करती है. मुर्गा हलाल में मुर्गे का मालिक फैंसी ड्रेस
प्रतियोगिता में जब राक्षस बनकर मुर्गे की गर्दन मरोड़ देता है तो यह वह स्थल हो
सकता था जहां कहानी को यथार्थ के जादू में प्रवेश करना था. पुन्नी सिंह की तीसरा चेहरा (अब - 18) बहुत मार्मिक कहानी है. सुभाष शर्मा की कहानी जल्लाद (अब - 18) भी बेरोजगारी तक कुछ ज्यादा यथार्थ से पहुँची है. राजेन्द्र चंद्रकांत राय की कहानी आदिम (अब - 18) में भोपाल के कुछ चित्र हैं. पुष्पपाल सिंह की कहानी फिर वही सवाल (इंद्रप्रस्थ भारती, जनवरी-मार्च 1991) की संभावनापूर्ण शुरुआत है पर कहानी युद्ध विरोध तक नहीं पहुँच पाती है. ये काले परदे कैसे हैं (इंद्रप्रस्थ भारती, जनवरी-मार्च 1991) में कृष्ण बलदेव वैद तथा ईश्वर की सात और कहानियां (इंद्रप्रस्थ भारती, जुलाई-सितंबर 1991) में विष्णु नागर अपनी पहचान बरकरार रखते हैं जो कथा-शिल्प
के नये मिजाज को पाने की कोशिश है. विष्णु नागर की ही शहीद रज्जब (समकालीन
भारतीय साहित्य -46) इस निकाय में मनुष्य की नियति पर अच्छा
व्यंग्य है. इस कहानी की खासियत है कि यह छोटी होते हुए भी एक साथ कई फलकों को
छूती है. नारायण सिंह की पानी (निष्कर्ष, मार्च 1991) यथार्थ की जमीन तक पहुँचती है कि उसी से उपजती है.
देवेन्द्र चौबे की दूसरा आदमी (नवभारत टाइम्स, दिल्ली 6 अक्टूबर 1991) में अकेली पड़ती घुटती औरत है. नरेंद्र नागदेव की शीशा लग चुका है (जनसत्ता, 21 जुलाई, 1991) में बदलते वक्त की 'असुरक्षा' से घिरा
व्यक्ति पारदर्शी आवरण की 'सुरक्षा' तलाशता है. खिजाब (जनसत्ता, 28 जुलाई 1991) में अलका सरावगी लिखती हैं, "दमयंती जी ने प्रेम और स्वतंत्रता में स्वतंत्र रहने का चुनाव कर लिया है
कि प्रेम सारी सहूलियतें और सुरक्षाएं भले ही दे सकता है पर स्वतंत्रता छीन लेता
है." ऐसे में यह सहज ही सवाल उठता है कि क्यों अधिकांश
लेखिकाएं अपनी बात नारी मुक्ति बनाम नारी चेतना की बहस से ही आरम्भ करती हैं और कहानी अगर इस स्वतंत्रता के चुनाव
को सनक भरे अस्त्तित्व में बदल देती है तो इससे क्या समझा जाये? ज्योत्सना मिलन की पैर (संडे आब्जर्वर, 26 मई 1991) अच्छी कहानी है और अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण.
विजय की तैयारी (मुहिम, सितंबर 1991) बिना किसी पूर्व तैयारी की लिखी रचना है जो हमारे उलझन भरे समय को सरल
समीकरण में बदलने की चेष्टा करती है. जयनंदन अपनी कहानी छठतलैया (मुहिम, सितंबर 1991) में एक दुर्लभ किस्म का साम्प्रदायिक सदभाव रचते हैं. वासुदेव की प्रतीक्षा (मुहिम, सितंबर 1991) मरणासन्न पिता की मृत्यु का प्रार्थनागीत है जो एक भौतिक विराग की संसृति
करता है. और यह बात कई बार दुहराई गयी है. वलेनतीन रस्पुतीन (1937) की आख़री घड़ी से लेकर रामधारी सिंह दिवाकर की शोकपर्व (हंस) तक. हा धिक्, यह सार्वभौमिक प्रतीक्षा! मुहिम के पहले अंक में नारायण सिंह की कहानी स्त्रीपर्व स्त्री को उसकी गरिमा में स्थापित करती
है. देवेन्द्र की बंटवारा (मुहिम-1) आंचलिक यथार्थ की कहानी है. चंद्रकान्त राय की उमरकैद (मुहिम-1) यथार्थ को विभिन्न समय-कलाओं में पकड़ती
हुई महत्वपूर्ण रचना बन जाती है. अकिंचन की कहानी सुग्गा भाग गया (रेल भारती, मार्च 1991) में पारिवारिक भावुकता अपनी प्रतीक योजना में पिछड़ जाती है. अमरेन्द्र मिश्र की टेलीफोन (गूंज, अक्टूबर-दिसंबर 1991) में कहानी की तरह कहानीकार को अपना पक्ष
पता नहीं है. प्रह्लाद श्रीमाली की कहानी दीवारें और आदमी (मधुमती, अगस्त 1991) नये तरीके से लिखी गयी है. हनुमान दीक्षित की खाली हाथ (मधुमती, अगस्त 1991) आतंकवाद का विरोध करती है. सुरेन्द्र तिवारी की उसका साथ (भाषा, मार्च 1991) सम्भावना के बावजूद कहानी होने से चुकती है.
राजाराम सिंह की कहानी अंत्योदय (कतार-12) एक व्यंग्य की तरह हावी होती है पर कुछ
नया नहीं रचती है. राजाराम रजक की टेनिया (कतार-12) में केवल एक सत्य है और सारी कहानी उसे
सिद्ध करती है. अरविन्द कुमार की कहानी नइकी भौजी (कतार-12) में मासूमियत से उत्पन्न रुमानियत
मासूमियत को नष्ट कर देती है. धनेश दत्त पाण्डेय की करवट (कतार-12) मनुष्य के शोषण और उसके इस्तेमाल की
कहानी है. समकालीन परिभाषा -6 में श्याम
अविनाश की हाथ, खुर्शीद अकरम की उमस और जेब अख्तर की ग्राफ नाराज-कहानी है जो हमारी नाराजी को
व्यवस्था-विरोध में दर्ज करती है. सूरज प्रकाश की बाजीगर (संभव-7) जीवन के नाटक में विरोध को बाजीगरी की तरह सहज बनाना चाहती है. जवाहर सिंह की कफन की चिंता (संभव -8,9,10) यथार्थ के भयानक होते जाने की खबर देती
है. ज्ञान प्रकाश विवेक की जी. डी. उर्फ गरीब दास (संभव -8,9,10) में भाषा और शिल्प का बेहतर प्रयोग कहानी
को चुस्त बनाता है. कुंदन सिंह परिहार की अपराध (साम्य -17) कहानी का अंत प्रभावी है.
सुधाकर की जुबेदा का गुस्सा (संवेद- 1) एक छोटी पर अच्छी कहानी है. शब्दों की
सचेत मितव्ययिता मन को बेधती है पर अंत में जुबेदा का तुतलाकर बोलना खरता है. सच
को कहने के लिए मासूमियत के सहारे की जरुरत नहीं होनी चाहिए. "इंसान चाहे तो
कम-से-कम चीजों से भी अपना कम चला सकता है, " सरफराज
द्वारा नियति के इस स्वीकार को जुबेदा साइकिल की मांग कर तोड़ती है तो लगता है
जैसे एक सन्नाटी संवादहीनता टूटती है. चंद्रमोहन प्रधान की खटमल (संवेद- 1) में खटमल को भी न मारनेवाले मंत्री हुलास सिंह अपने अत्याचारी भाईयों को जिस
तरह पिटवाते है वह फ़िल्मी रुमानियत के हिसाब से ही अच्छी लग सकती है. वैसे इस कहानी में 'हवेली' शब्द का अच्छा प्रयोग हुआ है जैसे, "हवेली को मारा कम घसीटा अधिक गया." शिव कुमार शिव की शताब्दी का सच (संवेद- 1) भागते हुए शहर भागलपुर के आतंक की कथा
है. कहा जा सकता है कि 'संवेद' पत्रिका अपने पहले अंक से उम्मीद जगाती
है और रचनात्मक नैतिकता का पूरी जिम्मेवारी से निर्वाह करती है.
1992 के उत्तरार्द्ध में आयी, खासकर वर्तमान साहित्य कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता- 1991 में पुरस्कृत कहानियाँ हिंदी कथा लेखन के
नये रुझान का संकेत देती है. चंदन प्रसाद
सिंह की स्कूप, विनोद अनुपम की आयरन , फूलचंद
गुप्ता की प्रायश्चित नहीं प्रतिशोध, डा. ईश्वर दत्त वर्मा की धर्मयुद्ध जैसी कहानियाँ यथार्थ को बारीक 'विट' के सहारे पकडती है और यह शायद हिंदी कहानी में एक तार्किक
कथात्मकता की शुरुआत है जो विशुद्ध गल्पवाद से भिन्न है. कारखाना के नये अंक में चंद्रकांत राय की जूते जादुई यथार्थवादी कहानी होते हुए भी जमीनी यथार्थ से
किस तरह जुडी रहती है यह देखना महत्वपूर्ण है. इनके आलावा अन्य उल्लेखनीय कहानियों में ना सम जियत न मुंअले माहीं (प्रकाश उदय), सेवड़ी
रोटियां और जले आलू (हरि भटनागर), कर्मयोग (अब्दुल बिस्मिल्लाह), उपचार (गोविन्द मिश्र) आदि का नाम लिया जा सकता है पर इनकी
चर्चा फिर कभी.
...तो ऐसा था हिंदी कहानी का एक संभावनापूर्ण साल!
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(सभी तस्वीरें गूगल/फेसबुक से साभार)
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